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जाने ग्राउंड रिपोर्ट : संबित पात्रा के वायरल वीडियो और उज्ज्वला योजना का सच क्या है?

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रविवार को जब भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता और पुरी लोकसभा क्षेत्र से पार्टी के उम्मीदवार डॉ. संबित पात्रा ने अपने ट्विटर हैंडल पर चुनाव प्रचार के दौरान एक बूढ़ी औरत के घर खाना खाने का वीडियो पोस्ट किया तब उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा कि इस वीडियो को लेकर ऐसा हड़कंप मचेगा और उनकी इतनी खिंचाई हो जाएगी.

इस वीडियो पर कई लोगों ने कहा कि ‘उज्ज्वला’ योजना की नाकामी का यह सबसे बड़ा सबूत यही है.

वीडियो में संबित पात्र खाना खाते हुए नज़र आए जबकि उनके पास बैठी उन्हें खाना खिलानेवाली महिला चूल्हे में रसोई करती दिखी. वीडियो देखने के बाद लोगों ने मान लिया कि घर में गैस न होने के कारण ही यह महिला लकड़ी के चूल्हे पर रसोई कर रही है.

इस वीडियो की सच्चाई की पड़ताल करने के लिए बीबीसी पुरी में उस महिला के घर पर पहुंची.

इससे पहले बीबीसी ने भारत सरकार के उस दावे की पड़ताल की थी कि ग्रामीण इलाकों के करीब एक करोड़ घरों में घरेलू गैस सिलेंडर पहुंचाने की उज्जवला योजना बेहद कामयाब रही थी.

बीबीसी जब पुरी में इस महिला के घर पहुंची तो पाया कि उनके घर में ‘उज्ज्वला योजना’ के तहत मिला गैस कनेक्शन है और उसका इस्तेमाल भी होता है.

पुरी लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत डेलांग इलाके में रामचंद्रपुर गांव में रहनेवाली 62 वर्षीय इस महिला का नाम है उर्मिला सिंह.

चूल्हे में रसोई करने के बारे में पूछे जाने पर उर्मिला ने बीबीसी से कहा, “हमारे यहाँ पिछले एक साल से गैस है. लेकिन उसका इस्तेमाल मेरी बहू और बेटी करती है. मगर मैं चूल्हे में ही खाना बनाना पसंद करती हूँ.”

“संबित बाबू हमारे गांव प्रचार के लिए आए थे तो मैंने उन्हें अपने घर बुला लिया और अपने हाथों से “चकुली” (एक तरह का दोसा) और सब्ज़ी बनाकर उन्हें परोसा. उन्होंने भी बड़े प्यार से खाया और मुझे भी खिलाया.”

मेरे और सवाल करने पर वो मुझे घर के अन्दर ले गईं और गैस सिलिंडर और चूल्हा दिखाया. उनकी बहू, बेटियों ने भी इस बात की पुष्टि की कि वे गैस पर ही खाना बनाती हैं.

उर्मिला ने बताया कि संबित पात्र ने भी उनसे पूछा था कि वे गैस से रसोई क्यों नहीं करतीं. उनका कहना है, “मैंने उन्हें वही कारण बताया जो अभी आपको बता रही हूँ.”

उन्होंने इस आरोप का भी खंडन किया कि संबित पात्र ने उन्हें अपना जूठा खिलाया. “यह बिलकुल ग़लत है. उन्होंने पहले प्यार से मुझे खिलाया और फिर खुद खाया. मुझे तो वे बहुत अच्छे लगे, अपने बेटे जैसे.”

उर्मिला के घर को बाहर से देखने पर ही उनके परिवार की आर्थिक स्थिति का अंदाज़ा लग जता है. उनके घर के भीतर घुसते ही पता चल जाता है कि परिवार के लिए बसर करना अपने आप में एक चुनौती है. घर में मिट्टी की फर्श है. छत से कई जगह पुआल नदारद है; टीवी या मनोरंजन का कोई दूसरा सामान कहीं नज़र नहीं आया.

उर्मिला के पति का देहांत करीब 20 साल पहले ही हो गया था. घर में दो अविवाहित और मानसिक रूप से पीड़ित बेटियाँ हैं.

38 साल की आशामणि और 33 साल की निशामणि की देखभाल उर्मिला ही करती हैं और शायद मरते दम तक करती रहेंगी.

उनकी तीसरी बेटी लक्ष्मीप्रिया (26) सामान्य है और उसकी शादी हो चुकी है.

उनका एक बेटा भी है- विश्वनाथ (30), लेकिन वह भी आंशिक रूप से बीमार है. विश्वनाथ मजदूरी करते हैं और उन्हीं की कमाई से घर चलता है.

सरकारी सहायता के नाम पर उर्मिला के पास बस एक बी.पी.एल. कार्ड है जिसमें उन्हें महीने में 25 किलो चावल 1 रूपया प्रति किलो की दर से मिलता है और एक विधवा पेंशन जिसके तहत उन्हें 500 रुपये हर महीने मिलते हैं.

जब मैंने उनसे पूछा कि क्या मानसिक रूप से कमज़ोर उनकी दो बेटियों को कोई सरकारी सहायता नहीं मिलती तो उन्होंने बताया कि पिछले महीने ही पहली बार आशामणि को अविवाहित लड़कियों के लिए सरकारी योजना के तहत 500 रुपये मिले हैं.

उर्मिला के घर के बगल में ही रहनेवाले उनके भतीजे को उनकी चाची के बारे में मीडिया की अचानक दिलचस्पी को लेकर हैरानी भी है और दुःख भी.

शिकायती लहजे में उन्होंने बीबीसी से कहा, “सभी की निगाहें बस उनके चूल्हे पर ही जाती हैं. लेकिन उनके घर की जर्जर हालत और उनकी दो बेटियों की दयनीय स्थिति किसी को नज़र नहीं आती.”

वो कहते हैं, “हो सके तो इस बारे में भी आप कुछ लिखें ताकि उन्हें कुछ आर्थिक मदद मिल सके.”