धूप की तपिश बढ़ने के साथ अब बाजार में देशी फ्रिज अर्थात मटके की मांग बढ़ने लगी है। साधन संपन्न व धनाढ्य वर्ग आधुनिकता की चाह में फ्रिज जैसे संसाधन अपना रहे हैं। वहीं मध्यम और गरीब तबके के लिए आज भी गर्मी के दिनों में उपयोग में आने वाले मटके यानि देशी फ्रिज शीतल जल से कलेजे को ठंडक पहुंचा रहा है। गर्मी के आगमन के साथ ही मिट्टी के पात्र बनाने वाले कुंभकारों ने अब सुलगते हुए भट्ठों से ईंट खप्पर के साथ-साथ मटका निकालना शुरू कर दिया है। पीढ़ी दर पीढ़ी मिट्टी के बर्तन का व्यवसाय करने वाले कुंभकारों के चाक से इस बार ज्यादा तादाद में मटके निकल रहे हैं और बाजार में मिट्टी से बने तरह-तरह के आकार के मटकों की मांग भी बढ़ने लगी है। गर्मी के सीजन में घरों में मटकों का पानी पीना शुरू हो गया है। नगर से तकरीबन 6 किमी सरायपाली-सारंगढ मार्ग पर स्थित ग्राम बोंदानवापाली ऐसे अनेक घर हैं, जिनका काम मिट्टी से बर्तन बनाना है और इसे यह अपना पुश्तैनी धंधा मानते हैं। यहां के कुंभकार परिवार वर्षों से मिट्टी से निर्मित एक से बढ़कर एक पात्र तैयार कर अपनी जीविका उर्पाजन करते आ रहे हैं। इनका मुख्य व्यवसाय त्योहार में उपयोग में आने वाले मिट्टी के बर्तनों का निर्माण करना है। इसमें गर्मी के सीजन में मटका सुराही, इत्यादि व दीपावली के मौके पर दिया और अन्य मिट्टी निर्मित पात्र जो मांगलिक अवसर पर पूजा इत्यादि कार्यों में उपयोग में लाए जाते हैं। उन्हें सीजन में मांग के अनुसार बनाकर बेचते हैं। हालांकि मटकों की बिक्री ने अभी जोर नहीं पकड़ा है फिर भी 15 से 20 व 30 रुपए तक मटके का मोल रखा गया है।
पीढ़ी दर पीढ़ी मिट्टी के बर्तनों का व्यवसाय करने वाले ललित का परिवार बोंदानवापाली में रहता है। उन्होंने बताया कि मिट्टी निर्मित मटके अब चलन में नहीं रहे। फिर भी आम आदमी जरूर इसे अपने घर में रखना चाहता है। वैसे आम हो या खास दोनों वर्ग के लोग अब भी मटके का पानी बड़े स्वाद से पीते हैं। गर्मी के दिनों मे उपयोग में आने वाले मटके यानी देशी फ्रिज का दाम सस्ता है। लेकिन इन्हें बनाने वाले कुंभकारों की आर्थिक हालत खस्ताहाल है। गर्मी में राहत पहुंचाने वाले मटका ही इनकी आय का मुख्य स्त्रोत है। आसपास के हाट-बाजारों में पसरा लगाकर अथवा गांव के गलियों में घुम-घुमकर मटका बेचने में बहुत कम लाभ मिल पाता है। जबकि शहरी क्षेत्र में मटकों की मांग और दाम दोनों ही ज्यादा है। कड़ी मेहनत करने के बावजूद उन्हें मेहनत के अनुरूप मेहनताना नहीं मिल रहा है। कुंभकारों को सरकारी सुविधा मिलने की दरकार है। पीढ़ी दर पीढ़ी मिट्टी के बर्तनों व ईट खप्पर आदि का व्यवसाय करने वाले कुंभकारों की माली हालत दिन ब दिन खराब होती जा रही है। कुंभकार ललित की माने तो इस पैतृक धंधे में अब कोई खास कमाई नहीं रह गई है। लागत राशि भी बमुश्किल मिल पाती है।
वहीं इस धंधे में अपेक्षानुरूप फायदा नहीं मिलने के बावजूद उन्हें इसी व्यवसाय से जुड़े रहने की मजबूरी है। क्योंकि वे अपने पैतृक कार्य के अलावा और कोई काम नहीं जानते। मजबूरी और पुश्तैनी धंधा होने के कारण भी इस व्यवसाय से इनका मोह भंग नहीं हो पा रहा है। जिसके कारण आर्थिक संकट झेलने के लिए मजबूर हैं। आगे उन्होंने बताया कि बस्तर आर्ट के नाम पर बस्तर में उत्पादित वस्तुओं व हस्तनिर्मित काष्ट शिल्प को जिस तरह सरकारी संरक्षण मिलता है। उसी तरह कुंभकारों को भी संरक्षण मिलना चाहिए। शासन द्वारा इलेक्ट्रानिक चाक देने का वादा किया गया था, लेकिन नहीं मिला। गरीबों के देशी फ्रिज पर आधुनिकता की मार पड़ती नजर आ रही है। मिट्टी से बने मटकों की मांग दिनों-दिन कम होती जा रही है, जिसके चलते इस व्यवसाय से जुड़े अधिकांश लोग अपना पुश्तैनी धंधा छोड़कर अन्य कार्यों से अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं। देशी फ्रिज की जगह आधुनिक फ्रिज ने ले ली है। जब से फ्रिज का चलन शुरू हुआ लोगों ने मटके का पानी पीना कम कर दिया है। इन अत्याधुनिक इलेक्ट्रानिक उपकरणों की वजह से मेहनतकश मजदूरों की मजदूरी भी छिन रही है। ज्यादातर लोग अपने पुश्तैनी धंधे को छोड़ चुके हैं। वहीं अब कुछ ही परिवार इस काम में लगे हैं।