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जानें मुस्लिम महिला अधिकारों की आवाज़ बनी ‘तीन तलाक’ पीड़िता शाह बानो की कहानी

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प्रधानमंत्री मोदी की कैबिनेट बैठक में तीन तलाक से जुड़े बिल पर चर्चा की खबरों के चलते एक बार फिर ये मुद्दा खड़ा हुआ है. अपने पिछले कार्यकाल में मोदी सरकार मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में तीन तलाक की कुप्रथा को खत्म करने के एक अध्यादेश को लोकसभा में पास करवा चुकी थी, लेकिन अभी राज्यसभा में इसका पास होना बाकी है. इन खबरों के बीच, आपको याद दिलाते हैं तीन तलाक की शिकार उस मुस्लिम महिला की कहानी, जिसके हौसले और कानूनी लड़ाई ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की चर्चा पहली बार देश में छेड़ दी थी.

अपने पति मोहम्मद अहमद खान के विरुद्ध गुज़ारे भत्ते के लिए अदालत पहुंचने वाली शाह बानो बेगम. इस कानूनी मुकदमे को शाह बानो केस के नाम से जाना जाता रहा है. शाह बानो केस सालों से मीडिया में काफी चर्चित रहा. जब कभी मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर कोई बहस चलती है, तब शाह बानो केस को याद किया जाता है क्योंकि यह पहला इतना बड़ा और चर्चित मुकदमा था, जिसने पूरे देश को आंदोलित कर दिया था. यहां तक कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इसके चलते जो फैसले किए, उसके दूरगामी परिणाम वो हुए, जिसके बारे में किसी ने कभी नहीं सोचा था.

कौन थीं शाह बानो बेगम?

मध्य प्रदेश के इंदौर के एक मुस्लिम परिवार से ताल्लुक रखने वाली शाह बानो 62 वर्षीय महिला थीं, जो उस वक्त पांच बच्चों की मां थीं. 1978 में शाह बानो के पति अहमद खान ने उन्हें तीन बार तलाक कहकर तलाक दे दिया था. तलाक के बाद शाह बानो ने अपने और बच्चों के गुज़ारे के लिए अपने पति से भत्ते की मांग की थी और इस मांग को लेकर वह अदालत की शरण में पहुंच गई थीं.

इसके बाद शाह बानो केस इस कदर चर्चित हो गया कि अक्सर और ज़्यादातर इस केस की ही चर्चा होती रही और शाह बानो की ज़िंदगी एक तरह से अनछुई रह गई. शाह बानो कौन थीं? उनकी ज़िंदगी कैसी थी और उनके पति ने उन्हें तलाक क्यों दिया था? इन तमाम बातों पर एक परदा सा पड़ा रहा, या यों कहा जाए कि कम ही लोग शाह बानो की ज़िंदगी के बारे में जान पाए.

सौतन की वजह से हुआ था तलाक!
शाह बानो की कहानी कुछ इस तरह थी कि उनके पति अहमद ने दूसरी शादी कर ली थी, जो इस्लाम के कायदों के तहत जायज़ भी था. अहमद नामी वकील थे जो विदेश से वकालत पढ़कर भारत लौटे थे और सुप्रीम कोर्ट तक में वकालत के लिए जाते थे. लेकिन, दूसरी बीवी से जलन होना पहली बीवी के लिए इंसानी फितरत के सिवाय और क्या हो सकता था! न्यूज़18 ने शाह बानो की बेटी सिद्दिका बेगम के हवाले से जो कहानी छापी थी, उसके मुताबिक अहमद की दूसरी बीवी शाह बानो से करीब 14 साल छोटी थी.

शाह बानो और उनकी सौतन के बीच खटपट होने लगी थी. आए दिन के झगड़े हुआ करते थे और कई सालों के दरमियान जब बात बहुत बिगड़ गई थी, तब एक दिन परेशान होकर अहमद ने अपनी पहली बीवी यानी शाह बानो को तलाक दे दिया था. एक सादा जीवन जीने वाली एक औरत के लिए बड़ा कदम था कि वह अपने पति के खिलाफ कोर्ट में जाए. चूंकि अहमद खुद बड़े वकील थे, इसलिए भी उनके खिलाफ कोर्ट में मुकदमा लड़ना शाह बानो के लिए आसान नहीं था.

गुज़ारे के लिए ली थी कोर्ट की शरण
तलाक के कुछ ही दिनों तक अहमद ने शाह बानो के गुज़ारे का इंतज़ाम किया और उसके बाद उसने हाथ खींच लिये थे. अपने बच्चों के साथ अकेली और मजबूरी की हालत में आ गई शाह बानो के पास जब कोई चारा न बचा, तो उसने अदालत की शरण ली. अपने पति से गुज़ारा भत्ता की मांग करने का केस दायर किया. और फिर शुरू हुआ एक ऐसा केस जो इतिहास बनने वाला था.

एक औरत का कोर्ट में चले जाना, धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर महिलाओं के लिए समान हक मांगना, कभी अपने वकील के ज़रिए अदालत में कुरआन की आयतों की दुहाई देना… ये सब वो बातें थीं, जिनसे कोर्ट ने तो फैसला शाह बानो के हक में दिया, लेकिन मुस्लिम समाज को ये सब नागवार गुज़रा. धीरे धीरे ये केस सुर्खियों में आ गया और मुस्लिम समाज के कई नामचीनों ने कोर्ट के फैसले का विरोध शुरू कर दिया.

फिर मची सियासी हलचल
सात सालों की कठिन कानूनी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट से जीतने के बाद भी शाह बानो के लिए जीवन आसान नहीं था. मुस्लिम समाज का विरोध इस कदर बढ़ा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने एक कानून मुस्लिम महिला अधिनियम 1986 पास करवा दिया. इस कानून के चलते शाह बानो के पक्ष में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भी पलट दिया गया. यहां से खुले तौर पर मुस्लिम तुष्टिकरण की शुरूआत हुई.

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शाह बानो और राजीव गांधी. फाइल फोटो.

राजीव गांधी पर मुस्लिम समुदाय के दबाव में आकर ऐसा कदम उठाने के आरोप लगे और हिंदू समुदाय उनसे नाराज़ हुआ. हिंदू समुदाय के तुष्टिकरण के लिए राजीव गांधी सरकार ने ही राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद पर लगे ताले को खुलवाने के लिए कदम उठाए. और, तुष्टिकरण की इस राजनीति के दूरगामी परिणाम बेहद खतरनाक साबित हुए.

चर्चा में रहा केस लेकिन शाह बानो हाशिए पर
शाह बानो के केस पर जमकर हुई राजनीतिक और धार्मिक रस्साकशी के बीच केस तो सुर्खियों में बना रहा, लेकिन शाह बानो की ज़िंदगी की चर्चा हाशिए पर चली गई. मुस्लिम महिला अधिकारों का प्रतीक बन चुका शाह बानो केस विडंबना साबित हुआ क्योंकि शाह बानो लंबी कानूनी लड़ाई लड़कर जीतने के बावजूद हार गई थी.

ब्रेन हैमरेज से हुई थी शाह बानो की मौत
शाह बानो की बेटी सिद्दिका बेगम के हवाले से छपी कहानी के मुताबिक 60 साल की उम्र में पति से तलाक मिलने के बाद शाह बानो को गहरा सदमा लगा था. कोर्ट केस और उनके खिलाफ मुस्लिम समाज की नाराज़गी की वजह से भी उनकी सेहत पर काफी बुरा असर पड़ा था. उनकी सेहत लगातार खराब रहने लगी थी.

इसके बावजूद उन्होंने हौसले के साथ कानूनी लड़ाई लड़ी और जीती. फिर सियासी मार पड़ने के बाद शाह बानो का स्वास्थ्य लगातार खराब होता चला गया और 1992 में ब्रेन हैमरेज के कारण उनकी मौत हो गई.