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डॉक्टरों को हड़ताल का कितना हक, क्या कहता है कानून

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कोलकाता के NRS अस्पताल में एक डॉक्टर पर हुए हमले के विरोध में डॉक्टरों ने हड़ताल की. पश्चिम बंगाल के इन डॉक्टरों के समर्थन में देश के कई हिस्सों से दूसरे डॉक्टर भी सड़कों पर उतर आए और हड़ताल पर चले गए. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से बातचीत के बाद डॉक्टरों ने अपनी हड़लात वापस ले ली है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट अपने कई फैसलों में कह चुका है कि मेडिकल अधिकारी और सरकारी अस्पताल मानव जीवन को बचाने के ‘कर्तव्य से बंधे’ हुए हैं.

इससे संबंधित मामलों में शीर्ष कोर्ट पहले कई फैसले दे चुका है. मई 1996 के एक केस में शीर्ष कोर्ट का कहना था कि चिकित्सा सहायता मुहैया कराने में विफलता ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन की गारंटी के मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया है.सुप्रीम कोर्ट तो यहां तक कह चुका है कि प्राइवेट डॉक्टर भी किसी के इलाज से इनकार नहीं कर सकते हैं.

कई दफा ऐसे केस सामने आए, जिसमें डॉक्टर अपनी पेशेवर प्रतिज्ञा का उल्लंघन करते हैं. पश्चिम बंगाल की हालिया घटनाक्रम के संदर्भ में ही संयोग से सुप्रीम कोर्ट के 6 मई 1996 को पश्चिम बंगाल खेत मजदूर समिति बनाम पश्चिम बंगाल सरकार के एक मामले को देखा जा सकता है. इसमें शीर्ष कोर्ट ने कहा था कि सरकार की पहली ड्यूटी लोगों के कल्याण को सुरक्षित करना होता है.

सुप्रीम कोर्ट कहता है कि, ‘लोगों को पर्याप्त मेडिकल सुविधा मुहैया कराना राज्य के कल्याणकारी दायित्वों का अहम हिस्सा है. सरकार अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र संचालित कर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करती है और उन लोगों को मेडिकल सुविधा मुहैया कराती है जो इसकी मांग करते हैं.’

क्या कहता है संविधान

शीर्ष कोर्ट के 1996 के उस फैसले के मुताबिक, ‘संविधान का अनुच्छेद 21 राज्य को प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की रक्षा के अधिकार के दायित्व से लैस करता है. मानव जीवन का संरक्षण इस प्रकार सर्वोपरि है. राज्य संचालित सरकारी अस्पताल और उसमें कार्यरत मेडिकल अफसर मानव जीवन के संरक्षण की खातिर चिकित्सा सहायता मुहैया कराने को लेकर बाध्य हैं. किसी जरूरतमंद व्यक्ति को अगर सरकारी अस्पताल समय से इलाज मुहैया कराने में विफल रहता है तो यह संविधान के अनुच्छेद 21 का प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के अधिकार की रक्षा की गारंटी का उल्लंघन है.’

कर सकते हैं कोर्ट की अवमानना का केस

सुप्रीम कोर्ट में वकील संतोष कुमार इसी केस की बिनाह पर बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का मतलब है कि कोई भी पीड़ित नागरिक सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के आदेशों के सहारे डॉक्टरों की हड़ताल को चुनौती दे सकता है और कोर्ट की अवमानना का केस दायर भी कर सकता है.

पश्चिम बंगाल खेत मजदूर समिति की याचिका पर ही सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया था जिसमें हकीम शेख नामक श्रमिक के ट्रेन से गिर जाने के बाद बंगाल के कई सरकारी अस्पतालों ने उनका इलाज करने से मना कर दिया था. यहां तक कि सरकारी अस्पतालों ने निजी अस्पताल में इलाज के लिए उन पर दबाव भी डाला.

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि, ‘सरकारी अस्पतालों के अधिकारियों ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हकीम शेख को मिले जीवन की सुरक्षा अधिकार की गारंटी का उल्लंघन किया.’ कोर्ट ने कहा, ‘राज्य हकीम शेख को मिले संवैधानिक अधिकार को देने से इनकार नहीं कर सकता है.’

उस समय शीर्ष कोर्ट ने फैसला दिया कि, ‘संविधान के भाग तीन के तहत गारंटी युक्त संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने के संबंध में यह तय है कि संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 (मौलिक अधिकार का प्रवर्तन) के तहत निवारण के माध्यम से इस तरह के उल्लंघन के लिए अदालत द्वारा पर्याप्त मुआवजा दिया जा सकता है.

बता दें कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर मामले में तहकीकात के लिए पश्चिम बंगाल सरकार ने कलकत्ता हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस लिलामॉय घोष के नेतृत्व में एक जांच समिति का गठन किया था. समिति की रिपोर्ट के बाद तत्कालीन राज्य सरकार ने अस्पतालों के लिए कई निर्देश जारी किए थे.

इलाज करना पेशेवर दायित्व

बहरहाल, इसी तरह एक दूसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि संविधान का अनुच्छेद 21 राज्य को जीवन की सुरक्षा का दायित्व प्रदान करता है. कोर्ट के मुताबिक, ‘प्रत्येक डॉक्टर चाहे वह सरकारी हो या प्राइवेट प्रैक्टिस करता हो, उसका पेशेवर दायित्व है कि वह अपनी विशेषज्ञा के जरिये मानव जीवन की रक्षा करे. कोई भी कानून या राज्य चिकित्सा पेशे से जुड़े सदस्यों को अपने मेडिकल पेश के दायित्वों के निर्वहन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है. दायित्व पूर्ण और सर्वोपरि होता है. कानून अगर उसमें हस्तक्षेप करता है तो उसे बरकरार नहीं रखा जा सकता है. इसलिए डॉक्टरों को अपना पेशवर दायित्व निभाने देना चाहिए.’