लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की लगातार दूसरी जीत ने विपक्ष को पसोपेश में डाल दिया है. भाजपा को तीन सौ से ज्यादा सीटें और अकेले ही राष्ट्रीय स्तर पर सैंतीस (37) प्रतिशत मतों की प्राप्ति ने अविश्वास की भावना को बढ़ाया है.
ऐसे में विपक्षी खेमे के कई लोग ईवीएम के साथ छेड़खानी का आरोप लगा रहे हैं. चुनाव परिणामों के प्रति यह रवैया एक बहुत बड़ी भूल है.
यह बात सही है कि यह चुनाव मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के पांच वर्षों की नासमझ नीतिगत पहलों के बाद हुए. इनमें नोटबंदी और जल्दबाजी में लागू की गई जीएसटी जैसी आत्महंता नीतियां भी थीं, जिन्होंने छोटे व्यापारियों, किसानों और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को काफी कष्ट पहुंचाया.
हालिया प्रकाशित सरकारी आंकड़ों ने इसे प्रमाणित किया है कि बेरोजगारी दर अभी छह प्रतिशत से भी अधिक है, जो कि चार दशकों में सर्वाधिक है. नवंबर-दिसंबर, 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार ने बिगड़ते आर्थिक हालात के कारण लोगों में व्याप्त असंतोष का संकेत दिया था.
लेकिन लोकसभा चुनाव परिणाम यह बताते हैं कि तात्कालिक आर्थिक स्थितियां परिणामों को निर्धारित करनेवाला एकमात्र कारक नहीं होतीं, लोग अपने निर्णय उपलब्ध विकल्पों के आधार पर तय करते हैं.
विपक्ष को पूरी विनम्रता के साथ यह स्वीकार करना चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर पर वे सामूहिक रूप से एक बेहतर, सुसंगत और प्रेरणादायक विकल्प देने में असमर्थ रहे हैं.
न तो विपक्ष के पास कोई वैकल्पिक सामान्य कार्यक्रम था, न ही पारदर्शिता के साथ चयनित नेतृत्व वाला एक प्रभावशाली राष्ट्रीय स्तर का गठबंधन, जो भाजपा के अद्भुत प्रोपेगैंडा और सांगठनिक मशीनरी के सामने कोई विश्वसनीय चुनौती पेश करता.
सेकुलर दलों की ज्यादातर मेहनत भाजपानीत एनडीए के खिलाफ संगठित संघर्ष खड़ा करने की जगह आपस में लड़ने में ही बर्बाद हुई. एक संगठित विपक्ष जैसा मोर्चा मोदी राज की अतिवादिता के खिलाफ जन-संघर्षों और आंदोलनों के माध्यम से बनाया जा सकता था, जो लगभग नदारद रहा.
चुनाव से पहले विपक्ष अगर कुछ देने की हालत में था, तो वह था त्रिशंकु लोकसभा, जिसे मतदाताओं ने स्पष्ट तौर पर नकार दिया. अब सभी सेकुलर दलों को गंभीरता से आत्मालोचन करना चाहिए और इस संदर्भ में सुधारवादी कदम उठाना चाहिए.
यह बात सीपीएम के नेतृत्ववाले वाम मोर्चे पर विशेष रूप से लागू होती है, जिसने आजादी के बाद अब तक का अपना सबसे खराब चुनावी प्रदर्शन किया है. इसके साथ ही पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे उसके अपने गढ़ों में भी उसे भारी नुकसान हुआ है.
बिखरा विपक्ष
कांग्रेस, सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, राजद, एनसीपी, जेडीएस जैसे सेकुलर विपक्षी दल गंभीर वैचारिक और राजनीतिक संकट का सामना कर रहे हैं.
सेकुलरिज्म, जिसका नेहरूवादी संदर्भों में यह अर्थ था कि राज्य के मामलों और राजनीति में धर्म का घालमेल नहीं करना चाहिए, अब नकारात्मक ढंग से परिवर्तित होकर राजनीतिक प्रक्रिया का अंग बन गया है. और लोग खुलेआम अपनी अवसरवादी राजनीतिक जरूरतों के लिए धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग कर रहे हैं.
‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ और ‘अल्पसंख्यक तुष्टीकरण’ के बीच सेकुलर दलों के भटकाव ने यह दिखा दिया है कि उनमें सेकुलर मूल्यों के प्रति कोई भी गहरी प्रतिबद्धता नहीं है.
इस बीच मॉब लिंचिंग, गोरक्षा के नाम पर हो रही गुंडागर्दी, असम में एनआरसी और नागरिकता संशोधन बिल, अयोध्या विवाद, ट्रिपल तलाक और ऐसे ही कई अन्य मुद्दों पर संवैधानिक मूल्यों पर आधारित एक स्पष्ट और पारदर्शी कदम उठाने और नीति-निर्धारण में सेकुलर दलों की असमर्थता ने जनता के एक बड़े हिस्से के बीच सेकुलरिज्म की पूरी अवधारणा को धूमिल करने में आरएसएस-भाजपा की मदद ही की है.
इसी तरह सामाजिक न्याय की राजनीति के वाहकों ने डॉ आंबेडकर के जाति-व्यवस्था उन्मूलन के महान उद्देश्य को जातियों और उप-जातियों पर आधारित वोट-बैंक की कुरूप राजनीति में रूपांतरित कर दिया है.
आज भाजपा-एनडीए ने जाति-आधारित सोशल इंजीनियरिंग की कला में महारत हासिल कर ली है. हिंदी प्रदेश में अन्य पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जातियों की अप्रभावी जातियों के बीच पहुंच कर और उन्हें हिंदुत्व की बड़ी छतरी के नीचे समायोजित कर तथा अधिक प्रतिनिधित्व देकर सपा, बसपा, राजद जैसे विभिन्न दलों को इस खेल में पीछे छोड़ दिया है.
सामान्य श्रेणी में आर्थिक रूप से कमजोर तबके को आरक्षण देने के कानून ने भी भाजपा को अगड़ी जातियों के वोटों को संगठित करने में सहायता पहुंचाई. उत्तर-पूर्व समेत देशभर में जनजाति समुदायों के बीच आरएसएस की लंबे समय से चल रही गतिविधियों ने प्रगतिशील ताकतों को हाशिये पर धकेल दिया है.
सामाजिक न्याय की राजनीति की बड़ी विफलता अस्मितावादी विशिष्ट मांगों से आगे बढ़कर उस व्यापक परिवर्तनकामी और समन्वयकारी एजेंडे तक न पहुंच पाने में है, जो कि गंभीर वर्गीय शोषण के साथ जातिऔर लिंग आधारित शोषण की सदियों पुरानी दमनकारी संरचनाओं का विध्वंस कर उन्हें मिटा सकती है.
राजनीतिक उदारवाद और आर्थिक-नवउदारवाद का वैचारिक गठजोड़, जो कि उत्तर-उदारवादी भारत की मुख्यधारा के सभी दलों की सहमतिपूर्ण राजनीति-आर्थिक संरचना बन चुका है, अब अभिजात्यवाद, क्रोनी पूंजीवाद और परिवारवादी राजनीति से पहचाना जा रहा है.
यह सच्चाई सिर्फ भारत की नहीं है, बल्कि ऐसी ही प्रवृत्ति 2008-09 के वैश्विक आर्थिक संकटऔर महामंदी के बाद से पूरी दुनिया में दिखाई दे रही है.
अतिवादी-दक्षिणपंथी ताकतों का उद्भव और मुख्यधारा में सम्मिलन तथा ट्रंप (अमेरिका), फराज (इंग्लैंड), ले पेन (फ्रांस), बोल्सोनारो (ब्राजील), एर्डोआं (तुर्की), नेतन्याहू (इजरायल) आदि के द्वारा उसका महिमामंडन नवउदारवादी पूंजीवादी संकट की सीधी प्रतिक्रिया है, जिसने बेरोजगारी तथा आय और संपत्ति की असमानताओं को ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंचा दिया है.
वैश्विक स्तर पर इस संकट के प्रति वाम और/या उदारवादी खेमे की तुलना में दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों ने वित्त, बिग डेटा विश्लेषण और सोशल मीडिया से संचालित आक्रामक घृणावादी राजनीति, नस्लवाद, अप्रवासियों के खिलाफ उन्माद और इस्लामोफोबिया के साथ कहीं अधिक जोर-शोर से प्रतिक्रिया व्यक्त की है.
इस्लामिक दुनिया में अनुदार और रूढ़िवादी नेतृत्व के निरंतर दबदबे के साथ जिहादी आतंकवाद की बढ़त ने इस अतिदक्षिणपंथी उत्थान को अवसर प्रदान किया है. रूस और चीन का निरंकुश शासन अभी तक इस पतनशील प्रवृत्ति का समर्थक ही रहा है.
घृणा की राजनीति के इस विकास के साथ ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हम गहरे वैश्विक टकरावों और युद्धों की ओर बढ़ रहे हैं, जिसके साथ हर देश के आमजन में असुरक्षा की भावना बड़े पैमाने पर बढ़ रही है और इसका परिणाम उनमें ऐसे ‘ताकतवर नेताओं’ की आकांक्षा के रूप में हो रहा है, जो कि ‘बाहरियों’ से उनकी रक्षा कर सकें.
यही वह वैश्विक परिवेश है जिसमें मोदी के नेतृत्व में आरएसएस-भाजपा हिंदुत्व के नाम पर उग्र और अंध राष्ट्रवाद तथा महाशक्ति बनने की आकांक्षा को बेच पा रही है. पाकिस्तानी शासन द्वारा समर्थित और उकसाए गए आतंकी हमलों ने, जैसे कि फरवरी, 2019 का पुलवामा हमला, भाजपा के आक्रामक रवैये को तर्कसंगत ठहराने और लोकप्रिय बनाने में सहयोग किया है.
दंगों, गाय के नाम पर भय कायम करना और मॉब लिंचिंग पर आधारित स्थानीय सांप्रदायिक ध्रुवीकरण; कश्मीर घाटी में भारी दमन, एनआरसी जैसा शरणार्थी-विरोधी उपक्रम और विभाजनकारी नागरिकता संशोधन बिल, सभी ने बहुसंख्यक आख्यान को आगे बढ़ाने का कार्य किया है.
दुखद है कि दुनिया के अधिकांश हिस्सों की तरह, हिंदुस्तान में भी विपक्ष ने इस आक्रामक अति-दक्षिणपंथी तेवर के खिलाफ बहुत ही नरम रुख अपनाए रखा.
पुलवामा आतंकी हमले और बालाकोट हवाई हमले के मसले पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों का रवैया ध्यान देने लायक है, जहां आतंकियों के मारे जाने के बारे में साफ तौर पर झूठे और अतिरंजित दावों को बिना किसी चुनौती के ही प्रचारित होने दिया गया, साथ ही इस गंभीर सुरक्षात्मक चूक और परिवर्जनीय सैन्य क्षति के लिए जिम्मेदार सुरक्षा प्रशासन पर कोई सवाल नहीं खड़ा किया गया.
गांधी की हत्या को जायज ठहरानेवाली आतंकी हमले की आरोपी भाजपा प्रत्याशी प्रज्ञा ठाकुर की भोपाल में जीत, विपक्षी खेमे की कमजोरी का एक और उदाहरण है कि किस तरह वह आरएसएस-भाजपा की विचारधारा और राजनीति से लड़ने में असफल रही है.
आज की जरूरत है कि संवैधानिक मूल्यों के साथ जमीनी स्तर के प्रयास कर आम लोगों के विश्वास को फिर से जीता जाए.
वाम का पतन
माकपा के नेतृत्ववाले वाम दलों ने आरएसएस-भाजपा की आक्रामकता का सामना करने में खुद को भारत की सभी बड़ी राजनीतिक ताकतों में सबसे कम सक्षम साबित किया है. वाम का पतन दस साल पहले 2009 के लोकसभा चुनावों से आरंभ हो चुका था.
वर्ष 2015 में शीर्ष नेतृत्व में परिवर्तन के बावजूद इस पतनशीलता को पिछले दस वर्षों में रोकने में असफल रहने का परिणाम अब चुनावों में सबसे खराब प्रदर्शन के रूप में दिखाई दे रहा है, जहां माकपा और भाकपा का संयुक्त राष्ट्रीय वोट शेयर 2.3 प्रतिशत तक घट गया है. (सूची देखें)
लोकसभा में वामपंथी दलों की ताकत 2014 के 12 से घटकर इस बार पांच पर पहुंच गई है. इन पांच सीटों में माकपा और भाकपा ने दो-दो सीटें तमिलनाडु में द्रमुकनीत सेकुलर गठबंधन के घटक के रूप में जीते हैं.
केरल में माकपानीत एलडीएफ सिर्फ एक सीट जीत सकी, वहीं कांग्रेसनीत यूडीएफ ने 19 सीटें जीती हैं, फिर भी सबरीमाला विवाद के बावजूद वहां वाम ने जनाधार में भारी गिरावट नहीं देखी.
हालांकि 2018 में भाजपा से त्रिपुरा में चुनावों में मिली हार के बाद वाम मोर्चे के जनाधार में भारी कमी आई है और इस बार वाम मोर्चे के प्रत्याशी भाजपा और कांग्रेस के बाद तीसरे पायदान पर पहुंच गए हैं.
सबसे चिंताजनक है पश्चिम बंगाल में वाम की स्थिति, जहां 40 वाम मोर्चा प्रत्याशी तीसरे और चौथे पायदान पर पहुंच गए और एक को छोड़कर सबकी जमानत भी जब्त हो गई.
पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे का वोट शेयर 2014 के 31 प्रतिशत से घटकर 2016 में 26 प्रतिशत तक पहुंच गया था (कांग्रेस के साथ गठबंधन में रहते हुए) और 2019 में अब वह 7.5 प्रतिशत तक रह गया है. भाजपा का वोट शेयर 2014 के 17 प्रतिशत से 2016 में 10 प्रतिशत तक पहुंचा और फिर 2019 में वह 40 प्रतिशत से भी अधिक हो गया.
2014 में तृणमूल (टीएमसी) का वोट शेयर 40 प्रतिशत था, जो 2016 में 45 प्रतिशत और फिर 2019 में 43 प्रतिशत हो गया. कांग्रेस 2014 के 10 प्रतिशत और 2016 के 12 प्रतिशत से घटकर 2019 में पांच प्रतिशत पर आ गई है.
यह स्पष्ट है कि बंगाल में भाजपा का वोट शेयर जिस अभूतपूर्व ढंग से बढ़ा है, वह मुख्यतः वाम मोर्चे की कीमत पर हुआ है और पूरे राज्य में वाम के समर्थक और कार्यकर्ता बड़ी संख्या में भाजपा के पाले में चले गए हैं.
टीएमसी का भी एक हिस्सा भाजपा की तरफ हो गया है, जिसके कारण उसे दक्षिण बंगाल में नुकसान झेलना पड़ा, लेकिन वाम मोर्चा और कांग्रेस का एक और तबका, विशेषकर केंद्रीय और उत्तरी बंगाल में टीएमसी की ओर झुका है, जिसके कारण राज्य स्तर पर टीएमसी के मतों की कुल हिस्सेदारी में ज्यादा गिरावट नहीं आई है.
पिछले दो वर्षों में लगातार हो रहे सांप्रदायिक दंगों और मुख्यमंत्री की गैर-सेकुलर, लोकतंत्र विरोधी और गैर-जिम्मेदाराना राजनीति के कारण राज्य में बढ़ते सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने निश्चित रूप से भाजपा के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
लेकिन सबसे बड़े वामपंथी दल के रूप में माकपा और इसके नेतृत्व को वाम के इस पतन और अपनी ही कीमत पर भाजपा के उदय की लांछना का अधिकांश भार वहन करना चाहिए. बदकिस्मती से माकपा नेतृत्व अभी भी अपने जनाधार की गिरावट का ठीकरा पश्चिम बंगाल में टीएमसी सरकार और त्रिपुरा में भाजपा की सरकार के कठोर दमन के ऊपर फोड़ रहा है.
यहां इस प्रश्न को छोड़ दिया गया है कि क्यों वे 1970 के दशक में पश्चिम बंगाल में और 1980 के आखिरी वर्षों में त्रिपुरा में जिस तरह राज्य के दमन के विरुद्ध अपने कार्यकर्ताओं और काडरों के पक्ष में खड़े थे, वैसे अभी क्यों नहीं हो सके?
अगर वे राज्य के दमन के खिलाफ खड़े थे, तो पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा की जनता ने उनको समर्थन देना क्यों बंद कर दिया? असल में यह एक झूठा आधार है क्योंकि बंगाल में भाजपा और त्रिपुरा में कांग्रेस की बढ़ोत्तरी अगर हुई भी है, तो उन्हीं परिस्थितियों का सामना करते हुए ऐसा हुआ है, जैसा कि माकपा के नेतृत्व में वाम मोर्चा ने कभी किया था.
माकपा नेतृत्व के राज्य द्वारा दमन के इस शोरगुल के पीछे लगातार मुंह फेर लेने की प्रवृत्ति और दंभी रवैया है. चुनावों में मिली हार के बाद गंभीर आत्मालोचन और सुधार करने की बजाय इसे लोगों द्वारा की गई भूल कहकर समझाया जाता है.
जनता के आदेश के प्रति यह तिरस्कार भाव ही वाम के पतन का मूल कारण है. नेतृत्व बहुत सहजता से अपनी गलतियों और असफलताओं की जिम्मेदारी लेने से इनकार कर देता है.
माकपा के नेतृत्व में वाम दल आज एक अनुपयोगी विचारधारात्मक संरचना, एक विकृत राजनीतिक समझ और एक निष्क्रिय संगठन के बीच फंस चुके हैं, जो उन्हें विनाश की ओर ले जा रहा है. व्यापक तौर पर किए गए विचारधारात्मक, राजनीतिक और संगठनात्मक आमूल परिवर्तन के बिना वाम की वापसी असंभव है.
वाम दलों को अपने कार्यक्रम में सोवियत संघ और चीन के कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं सदी की रूढ़िवादिता को छोड़ना होगा और नए वाम के लोकतांत्रिक समाजवादी कार्यक्रम को बिना किसी झिझक के अपनाना होगा, जो लैटिन अमेरिका से यूरोप और अमेरिका तक में नवउदारवादी पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष करते हुए उभरा है.
राजनीतिक तौर पर वाम को इस वर्षों पुराने विवाद पर समय व्यर्थ करना बंद करना होगा कि उन्हें कांग्रेस के साथ जाना चाहिए या नहीं.
यह विवाद अब एक मजाक में बदल चुका है, खासकर 2016 में पश्चिम बंगाल की हार के बाद, जहां कांग्रेस ने सबसे बड़े विरोधी दल के रूप में वाम मोर्चे को स्थानांतरित कर दिया और 2019 में जहां वाम मोर्चा के समर्थन ने बंगाल में किसी पारस्परिक आदान-प्रदान के बिना ही दो सीटों पर कांग्रेस की जीत सुनिश्चित कर दी.
ऐसे सिद्धांतहीन और अपारदर्शी गठबंधन वाम की समस्याओं का कोई हल नहीं निकाल सकते. असल में वाम को ‘लोकतांत्रिक केंद्रवाद’ के अपने सिद्धांत को त्याग देने के बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए, जो बस एक असफल और बूढ़े नेतृत्व को ही आगे बढ़ाता है और समय के अनुरूप पुनर्गठन को रोक देता है.
वाम को लोकप्रिय मंचों और व्यापक चुनावी मोर्चों के प्रति एक खुला रुख अपनाना पड़ेगा ताकि युवा उत्साह, नए विचारों और नेतृत्व को यहआकर्षित कर सके. पश्चिम बंगाल में, जहां वाम ने लगभग तीन दशक तक शासन किया, उसके पतन का मुख्य कारण उसके सरकार की कई असफलताओं और गलतियों में है.
कृषि, औद्योगिक विकास, रोजगार सृजन, भूमि अधिग्रहण, भूमि उपयोग, संसाधनों का संचय और वितरण, सहकारी संगठनों आदि के संदर्भ में वाम सरकारों की नीतियों और कार्यक्रमों के पूरे ढांचे को ही बदलने की जरूरत है.
संवहनीय विकास, विकेंद्रीकृत लोकतंत्र, शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही, लैंगिक और सामाजिक न्याय, अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों के अधिकार, पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर भी अतीत के अनुभवों के आलोक में वाम को गंभीर पुनर्विचार करने की जरूरत है.
वामपंथ के कार्यक्रम के बारे में ऐसी पुनर्कल्पना के बिना चुनावी रणनीति के बारे में खोखले वाद-विवाद कोई भी दिशा नहीं दे पाएंगे. वाम के पतन का सबसे प्रत्यक्ष प्रभाव आजीविका के मुद्दों पर गंभीर संघर्षों और आंदोलनों की अनुपस्थिति के रूप में देखा जा सकता है, जो आरएसएस-भाजपा के वर्ग-जाति गणित को उलट सकता है.
राष्ट्रीय स्तर पर मोर्चे कायम करने के प्रयास ने सिर्फ छिटपुट और मुख्यतः सांकेतिक लामबंदियां दिखाई हैं. राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में जरूर कुछ अपवाद रहे हैं, लेकिन किसान संघर्षों के सीमित प्रभाव को विधानसभा चुनाव के रुझान को लोकसभा चुनाव में पलट जाने में देखा जा सकता है.
विश्वविद्यालय परिसरों में छात्रों और शिक्षकों ने गंभीर प्रतिरोधी आंदोलन खड़े किए हैं, लेकिन अभी तक वे रक्षात्मक लड़ाइयां ही रहीं हैं, जिनका स्तर और प्रभाव सीमित रहा है. मोदी राज में अधिकतर क्षेत्रों में जो व्यापक परिवर्तन हुए हैं, उनकी पृष्ठभूमि में सिर्फ किसान और छात्र आंदोलनों से कुछ नहीं होगा.
बेगूसराय में भाकपा प्रत्याशी कन्हैया कुमार का प्रचार भी भाजपा को हरा नहीं सका. इसका एक कारण राजद द्वारा सेकुलर मतों का विभाजन रहा. हालांकि इस अभियान ने रचनात्मक रणनीतियों को जन्म दिया और विभिन्न दायरों से लोगों को शामिल कर सका, विशेषकर इसने जातियों और समुदायों के बंधनों से ऊपर उठकर युवाओं को जोड़ा.
यह इसलिए संभव हो सका क्योंकि कन्हैया कुमार ने वाम राजनीति को नई शब्दावली में पेश किया, जो अतीत के बोझ से मुक्त और एक ऐसे नए चेहरे से युक्त थी, जो एक लोकतांत्रिक आंदोलन से उभरा था. यह उम्मीद की एक किरण दिखाती है.
जमीनी आंदोलनों का पुनर्गठन
वाम के पास मोदी राज के खिलाफ फिर से जनांदोलनों को खड़ा करने के सिवा कोई विकल्प नहीं है. इस बार उसे नई संकल्पशक्ति को दिखाना होगा और अतीत की भूलों से बचना होगा.
आंदोलनात्मक उपक्रमों की व्यापक विचारधारात्मक संरचना पूरी ईमानदारी से सेकुलर होनी चाहिए यानी राजनीति का धर्म से कोई घालमेल न हो और संवैधानिक मूल्यों, संघवाद, मानव अधिकारों तथा लोकतांत्रिक समाजवाद की रक्षा की जानी चाहिए.
भारतीय संदर्भों में मार्क्सवाद को आंबेडकर, गांधी, टैगोर, पेरियार और ऐसे ही अन्य प्रगतिशील भारतीय विचारकों के विचारों से समन्वित करने की आवश्यकता है.
वाम दलों और प्रगतिशील संगठनों के राष्ट्रीय स्तर के मंचों, जो लुटियन्स दिल्ली तक ही सीमित रह जाते हैं, को तैयार करने के बजाय राज्य स्तर के आंदोलनात्मक मोर्चों के निर्माण पर जोर दिया जाना चाहिए, जो आजीविका के मुद्दों और श्रमजीवी लोगों के सामाजिक-आर्थिक अधिकारों पर आधारित हों.
ऐसे राज्य-आधारित आंदोलन राष्ट्रीय स्तर के प्रगतिशील विकल्प का निर्माण कर सकते हैं, लेकिन यह तभी होगा जब वे राज्य स्तर पर काफी गति हासिल कर चुके हों और उन्हें व्यापक जन समर्थन अर्जित हो चुका हो.
इन आंदोलनात्मक मंचों से निकले चुनावी मोर्चे निस्संदेह अधिक प्रामाणिक होंगे. वर्तमान वाम और सेकुलर दल अवश्य ही ऐसे सामान्य मंचों के हिस्से हो सकते हैं, लेकिन उसके साथ-साथ जमीनी स्तर पर कार्यरत नई ताकतों को इसमें शामिल करने और नेतृत्व में नए चेहरों को प्रमुखता देने से कतई मुंह नहीं मोड़ा जा सकता.
एक ताकतवर स्थानीय संदर्भ के साथ जमीन से चुनावी संगठन का निर्माण करना और आंदोलन खड़े करना आज की आवश्यकता है.
‘हिन्दी-हिंदू-हिंदुस्तान’ के नारे के साथ लोकप्रिय बनाए गए आरएसएस-भाजपा के ‘एक राष्ट्र-एक जन-एक संस्कृति’ की संरचना को आज चुनौती देने की जरूरत है, जिससे विभिन्न भारतीय राष्ट्रीयताओं की अलग-अलग भाषिक और सांस्कृतिक अस्मिताओं का समर्थन कर हासिल किया जा सकता है. इन राष्ट्रीयताओं की अनेकता में एकता ही व्यापक भारतीय राष्ट्रीयता को परिभाषित करती है.