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ऐसे हरते हैं भक्तों की पीड़ा, मेहन्दीपुर बालाजी से जुड़ी कुछ चमत्कारी बातें..

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राचीन ग्रन्थों में वर्णित सात करोड़ मंत्रों में श्री हनुमान जी की पूजा का विशेष उल्लेख मिलता है। श्री रामभक्त, रूद्र अवतार सूर्य-शिष्य, वायु-पुत्र, केसरी नन्दन, श्री बालाजी के नाम से प्रसिद्ध श्री हनुमान जी समूचे भारत वर्ष में पूजे जाते है। माता अंजनि के गर्भ से प्रकट हनुमान जी में पाँच देवताओं का तेज समाहित है। ‘अजर-अमर गुणनिधि सुत होहु’ यह वरदान माता जानकी जी ने हनुमान जी को अशोक वाटिका में दिया था। स्वंय भगवान श्रीराम ने कहा था कि- ‘सुन कपि तोहि समान उपकारी, नहि कोउ सुर, नर, मुनि, तनुधारी’। बल और बुद्धि के प्रतीक हनुमान जी राम और जानकी के अत्यधिक प्रिय हैं। अतुलनीय बलशाली होने के फलस्वरूप इन्हें बालाजी की संज्ञा दी गई है।

सभी भक्त अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं की उपासना करते है। परन्तु इस युग में भगवान शिव के ग्यारहवें रूद्र अवतार हनुमान जी को सबसे ज्यादा पूजा जाता है। यही कारण है कि हनुमान जी को कलयुग का जीवंत देवता कहा गया है। संपूर्ण भारत देश में हनुमान जी के लाखों मंदिर स्थित है, परंतु कुछ मंदिर अपनी अपनी विशेषता के लिए प्रसिद्ध है, जहाँ जनसमूह का सैलाब उमड़ता है,ऐसा ही एक मंदिर राजस्थान के दौसा जिले में मेहन्दीपुर स्थित बालाजी का चमत्कारित मंदिर है। यह मंदिर दो अति सुरम्य पहाड़ियों के बीच की घाटी में स्थित होने के कारण घाटा मेहन्दीपुर भी कहलाता है। मंदिर करीब एक हजार साल पुराना है। इस मंदिर में स्थित बजरंग बली की बालरूप मूर्ति किसी कलाकार ने नहीं बनाई बल्कि यह स्वंयभू है।

बालाजी की यह मूर्ति पहाड़ के अखण्ड भाग के रूप में मंदिर की पिछली दीवार का कार्य भी करती है। इस मूर्ति को प्रधान मानते हुए बाकी मंदिर का निर्माण कराया गया है। इस मूर्ति के सीने के बांई तरफ एक अत्यन्त सूक्ष्म छिद्र है, जिससे पवित्र जल की धारा निरन्तर बहती रहती है। यह जल बालाजी के चरणों तले स्थित एक कुण्ड में एकत्रित होता रहता है जिसे भक्तजन चरणामृत के रूप में अपने साथ ले जाते है। कलियुग में बालाजी ही एक मात्र ऐसे देवता है, जो अपने भक्त को सहज ही अष्टसिद्धी, नवनिधि तदुपरान्त मोक्ष प्रदान कर सकते है।

कुछ ऐसा है बालाजी का इतिहास
प्रारंभ में यहाँ घोर बीहड़ जंगल था। चारो तरफ फैली हुई घनी झाड़ियों में जंगली जानवरों का बसेरा था। श्री मंहत जी महाराज के पूर्वज को स्वप्न आया और स्वप्न की अवस्था में ही वे उठ कर चल दिए। उन्हें पता नहीं था कि वे कहाँ जा रहे है और इसी दौरान उन्होंने एक बड़ी विचित्र लीला देखी। एक ओर से हजारों दीपक चलते आ रहे है। हाथी घोड़ों की आवाजें आ रही है और एक बहुत बड़ी फौज चली आ रही है। उस फौज ने श्री बालाजी महाराज की मूर्ति की तीन प्रदक्षिणाएं की और फौज के प्रधान ने नीचे उतरकर श्री बालाजी महाराज को दण्डवत प्रणाम किया तथा जिस रास्ते वे आए उसी रास्ते को चले गए।

गोसाई जी महाराज चकित होकर यह सब देखते ही रह गए। उन्हें कुछ डर सा लगा और वे वापस अपने गांव चले गए किन्तु नींद नहीं आई और बार-बार उसी विषय पर विचार करते हुए उनकी जैसे ही आँखें लगी उन्हें स्वप्न में तीन मूर्तिया दिखी। उनके कानों में यह आवाज आई – ‘उठो, मेरी सेवा का भार ग्रहण करो। मैं अपनी लीलाओं का विस्तार करूंगा’ यह बात कौन कह रहा था, कोई दिखाई नहीं पड़ा। गोसाई जी ने फिर इस बात पर ध्यान नहीं दिया और अन्त में हनुमान जी महाराज ने स्वंय उन्हें दर्शन दिए और पूजा का आग्रह किया।

दूसरे दिन गोसाई जी महाराज उस मूर्ति के पास पहुंचे तो उन्होंने देखा कि चारो ओर से घंटा-घड़ियाल और नगाड़ों की आवाज आ रही है, किन्तु दिखाई कुछ नहीं दिया। इसके बाद श्री गोसाई जी ने आस-पास के लोग इकट्ठे किए और सारी बातें उन्हें बताई। गोसाई जी ने सब लोगों के साथ मिलकर वहां बालाजी महाराज की एक छोटी सी तिवारी बना दी, तत्पश्चात वहाँ पूजा-अर्चना होने लगी।

मुस्लिम शासनकाल में कुछ बादशाहों ने इस मूर्ति को नष्ट करने की कुचेष्टा की, लेकिन वे असफल रहे। वे इसे जितना खुदवाते गए मूर्ति की जड़ उतनी ही गहरी होती चली गई। थक हार कर उन्हें अपना यह कुप्रयास छोड़ना पड़ा। ब्रिटिश शासन के दौरान सन 1910 में बालाजी ने अपना सैकड़ों वर्ष पुराना चोला स्वतः ही त्याग दिया। भक्तजन इस चोलें को लेकर समीपवर्ती मंडावर रेलवे स्टेशन पहुँचे, जहाँ से उन्हें चोले को गंगा में प्रवाहित करने जाना था। ब्रिटिश स्टेशन मास्टर ने चोले को निःशुल्क ले जाने से रोका और उसका लगेज करने लगा, लेकिन चमत्कारी चोला कभी ज्यादा हो जाता और कभी कम हो जाता। असमंजस में पड़े रेलवे स्टेशन मास्टर को अंततः चोले को बिना लगेज ही जाने देना पड़ा और उसने भी बालाजी के चमत्कार को नमस्कार किया। इसके बाद बालाजी को नया चोला चढाया गया।

यह बालाजी का मंदिर भूतप्रेतादि ऊपरी बाधाओं के निवारण के लिये पूरे विश्वभर में विख्यात है, मान्यता है कि तंत्र मंत्रादि ऊपरी शक्तियों से ग्रसित व्यक्ति भी बालाजी महाराज की कृपा से बिना दवा के स्वस्थ होकर लौटते है। दुखी कष्टग्रस्त व्यक्ति को मंदिर पहुंचकर तीनों देवगणों को प्रसाद चढाना पड़ता है। बालाजी को लड्डू, प्रेतराज सरकार को चावल और कोतवाल कप्तान (भैरव) को उड़द का प्रसाद चढ़ाया जाता है।

श्री प्रेतराज सरकार
बालाजी मंदिर में प्रेतराज सरकार दण्डाधिकारी पद पर आसीन है। प्रेतराज सरकार के विग्रह पर भी चोला चढाया जाता है। प्रेतराज सरकार को दुष्ट आत्माओं को दण्ड देने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है। भक्ति-भाव से उनकी आरती, चालीसा, कीर्तन, भजन आदि किए जाते है। बालाजी के सहायक देवता के रूप में ही प्रेतराज सरकार की आराधना की जाती है। इनकी पृथक रूप से आराधना, उपासना कहीं नही की जाती, न ही इनका पृथक रूप से कोई मंदिर होता है। वेद, पुराण, धर्म, ग्रन्थ आदि में कही भी प्रेतराज सरकार का उल्लेख नही मिलता। प्रेतराज श्रद्वा और भावना के देवता है।

कुछ लोग बालाजी का नाम सुनते ही घबरा जाते है। उनका मानना होता है कि भूत-प्रेतादि बाधाओं से ग्रस्त व्यक्ति ही बालाजी के मंदिर में जाते है परन्तु ऐेसा नही है। कोई भी भक्त जो बालाजी के प्रति भक्ति-भाव रखने वाला हो, इन तीनों देवों की आराधना कर सकता है। अनेक भक्त देश-विदेश से बालाजी के दरबार में मात्र प्रसाद चढाने नियमित रूप से आते है।

कोतवाल कप्तान श्री भैरव देव
कोतवाल कप्तान श्री भैरव देव भगवान शिव के अवतार है (भैरवः पूर्णरूपोहि शंकरस्य परत्मनः मूढास्ते वै न जानन्ति केवलं शिव माज्ञयया) और उनकी ही तरह भक्तों की थोड़ी सी पूजा अर्चना से ही प्रसन्न हो जाते है। भैरव महाराज चतुर्भुजी है। उनके हाथों में त्रिशूल, डमरू, खप्पर तथा प्रजापति ब्रह्मा का पाँचवाँ कटा शीश रहता है। वे कमर में बाघाम्बर नही, लाल वस्त्र धारण करते है। वे भस्म लपेटते है। उनकी मूर्ति पर चमेली के सुगंध युक्त तिल के तेल में सिन्दूर घोलकर चोला चढाया जाता है। शास्त्र और लोककथाओं में भैरव देव के अनेक रूपों का वर्णन है, जिनमें एक दर्जन रूप प्रामाणिक है, श्री बाल भैरव और श्री बटुक भैरव, भैरव देव के बाल रूप है। भक्तजन प्रायः भैरव देव के इन्हीं रूपों की अराधना करते हैं। भैरव देव बालाजी महाराज की सेना के कोतवाल है। इन्हें कोतवाल कप्तान भी कहा जाता है। बालाजी मंदिर में इनके भजन-कीर्तन, आरती और चालीसा श्रद्धा से गाए जाते हैं। प्रसाद के रूप में भैरव देव को उड़द की दाल के बड़े और खीर का भोग लगाया जाता है।