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समय आ गया है कि हम सामुदायिकता का मोह छोड़कर व्यक्ति के पुनर्गठन की ओर लौटें…

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श्रीकांत वर्मा के तीसरे रास्ते पर जो गंभीर और आलोकप्रद विचार-विमर्श रायपुर में हुआ उसमें एक बिंदु यह उभरा कि इस समय संसार भर में जो हो रहा है उसका एक चिंताजनक पक्ष यह है कि आधुनिकता के एक अद्वितीय आविष्कार व्यक्ति का लोप होने जा रहा है. व्यक्ति को नष्ट करने का एक संयुक्त उपक्रम राजनीति, आर्थिकी और बाज़ार, तकनालजी, धर्म, मीडिया आदि सब एक विचित्र और असाधारण गठबंधन में जाने-अनजाने कर रहे हैं. हम महात्मा गांधी के 150 वर्ष पूरे होने के बहुत नज़दीक हैं और इसलिए यह याद करना उचित होगा कि एक ओर तो गांधी जी ने अभूतपूर्व सामुदायिकता विकसित की और दूसरी ओर व्यक्ति की महिमा पहचान कर व्यक्ति को एक तरह से नयी नैतिक ज़िम्मेदारी और अन्तःकरण के घर के रूप में प्रतिष्ठित किया.

सामुदायिकता के जोश, प्रवाह और उत्साह में वे व्यक्ति और उसकी पूरी अद्वितीयता और नैतिक सत्ता को कभी ओझल नहीं होने देते थे. आज भारत में ही नहीं सारे संसार में व्यक्ति का क़द, उस की नैतिक सत्ता और जवाबदेही को लगातार घटाया जा रहा है. उसका समुदाय, समाज, बिरादरी, जाति, धर्म आदि में घटाया जाना लगातार जारी है और उसके निजी नैतिक अन्तःकरण को एक सुनियाजित लेकिन नीति-निरपेक्ष सामुदायिक अंतःकरण से अपदस्थ करने की चेष्टा विकराल और भयावह रूप से हो रही है. इस समय लोकतंत्र का एक बड़ा संकट यह है कि उसमें अब व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता की कोई आशंका नहीं बची है और न ही ऐसी किसी आकांक्षा के लिए कोई संभावना.

इस विषर्यास में, जो कि झूठ-अन्याय-ग़ैर बराबरी-हिंसा के विचित्र घालमेल से बढ़ रहा है, यह स्थिति तेज़ी से और मान्य हो रही है कि व्यक्ति की अपने से कोई ज़िम्मेदारी, सांस्कृतिक या नैतिक, राजनैतिक या सामाजिक नहीं है. सब कुछ सामुदायिकता के हिस्से या मत्थे जा रहा है. किसी सही या ग़लत सामुदायिक लक्ष्य के लिए व्यक्ति की बलि देने में नियामक शक्तियों को कोई संकोच नहीं है और क़ानून भी अब उसमें बाधा नहीं बन सकते. कोई भी सामुदायिक झूठ सच माना जा सकता है इस आधार पर कि बड़ी संख्या में लोग उसे सच मानते हैं या कि उनसे मनवाया जा सकता है. सच की कैसी भी व्यक्तिगत सत्ता ध्वस्त हो रही है.

समय आ गया है कि हम सामुदायिकता का मोह छोड़कर व्यक्ति के पुनर्गठन की ओर लौटें और सत्याग्रह का पुनराविष्कार करें. यह आसान भले न हो असंभव नहीं है. हमें इस सच्चाई पर वापस आना होगा कि हमारे कुछ सच साझा और सामुदायिक हैं और कुछ व्यक्तिगत और दोनों में तालमेल रखकर ऐसा आचरण किया जा सकता है जो निजी और सामाजिक एक साथ हो. अगर झूठ के घटाटोप और सामाजिक आतंक का हमें सामना करना हो निजी सत्याग्रह से तो वह हमारी तेज़ी से घटती नैतिक ऊर्जा का पुनर्वास करेगा. राज के बरक़्स नीति की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा अंततः सामाजिक प्रतिफल भी लायेगी. किसी भी व्यक्ति के लिए आज सच पर अड़ना एक साथ नैतिक और सामाजिक होना है.

अज्ञातकुलशील की छबियों का अनंंत

यह तो व्यापक तौर पर जाना-माना जाता है कि आधुनिकता की एक बड़ी और अक्षय देन यह रही है कि उसने पौराणिक-ऐतिहासिक-मिथकीय नायकों को साहित्य और कलाओं के क्षेत्र से अपदस्थ कर उनकी जगह पर, ध्यान और सृजन में, साधारण को, साधारणता की निपट और अदम्य-विविध मानवीयता को प्रतिष्ठित कर दिया है. यह नहीं कि पहले की कला या साहित्य में साधारण की कोई जगह नहीं थी, थी पर केंद्र में नहीं, हाशियों पर थी. आधुनिकता ने उसे केंद्र में लाने का अथक यत्न किया है. यह बात शिद्दत से लगी जब पिछले सप्ताह प्रसिद्ध चित्रकार जोगेन चौधरी की एक बड़ी प्रदर्शनी का, जो लगभग पुनरवलोकी प्रदर्शनी है, शुभारम्भ बांग्ला अभिनेता और कवि सौमित्र चटर्जी, बैंकर अरुन्धती भट्टाचार्य और मैंने पिछले सप्ताह कोलकाता में इमामी द्वारा हाल में स्थापित ‘कोलकता सेंटर फ़ार क्रिएटिविटी’ में किया.

यों तो जोगेन ने पशु-पक्षी, फूल-पौधे आदि भी दक्षता और कल्पनाशीलता से चित्रित किये हैं पर उनकी लंबी और अत्यन्त समृद्ध छबि-श्रृंखला में अज्ञातकुलशील व्यक्तियों के अनेक मनोहारी या विचलित-द्रवित करनेवाले चित्र हैं. वे सभी अनायक, लगभग सन्दर्भहीन, इतिहास से छूटे हुए हैं. उनके कोई नाम नहीं हैं और उनका जोगेन के किसी चित्र में होना जैसे नामहीनता से बाहर नाममयता के वृत्त में आना है. चित्र, बिना नाम लिये, इन लगभग असंख्य लगते साधारण लोगों को नाम देते हैं. जोगेन मानवीय को, लगातार और अथक रूप से, साधारण में अवस्थित करते हैं. उनके यहाँ मानवीय, ग़ैर-मानवीय, वानस्पतिक, खनिमूलक सब में एकता जैसी है. मानवीय अपनी सहज नाटकीयता, सघन गीतिपरकता, विडम्बना, ऐन्द्रियता, सहजता, अपनी पीड़ा और उछाह में साधारण में ही प्रगट होता है.

कला के देवता, जैसा कि पहले भी कई बार कहा गया है, ब्यौरों में बसते हैं. जोगेन तो ब्यौरों में बहुत संलग्नता और हुनर से काम करनेवाले चित्रकार हैं. ये ब्यौरे अकसर एक जटिल गुंथाव में होते हैं. वे कई बार अप्रत्याशित और विस्मयकारी भी होते हैं- कई रैखिक तनावों में उलझे हुए.

इन चित्रों को साधारण जीजन के एक लंबे, लगभग असमाप्य, नाटक के रूप में भी देखा जा सकता है. इन नाटक में अवसाद, आशा, निराशा, वासना, क्षरण, सहारा, निहत्थापन आदि कई तरह के प्रसंग आते रहते हैं. जोगेन का स्थायी भाव वे असंख्य ढंग हैं जिनसे साधारण मनुष्य संघर्ष करते, इसरार करते, खोजते-पाते, भटकते हैं, सिर्फ़ मानवीय हो सकने की कोशिश में. जोगेन से पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में कि उनकी कृतियों में कोई स्पष्ट सामाजिक सन्दर्भ नहीं होता, मैंने यह कहने की कोशिश की कि साधारण को जगह देना, उन्हें सृजन के केन्द्र में लाना अपने आप में सामाजिक कर्म है और ऐसी कला को अलग या मुखर रूप से अपने को सामाजिक दिखाने-बनाने की सरकार नहीं.

समापन की ओर

1945 में संसार में कुल 12 लोकतंत्र थे, पिछली सदी के अंत पर उनकी संस्था बढ़कर 87 हो गयी लेकिन नयी सदी के दो दशकों के समापन पर संसार भर में लोकतंत्र समापन की ओर बढ़ रहे हैं. 3 दशकों पहले इतिहास के अन्त की घोषणा हुई थी- इतिहास तो बच गया लगता है पर लोकतंत्र समापन की ओर है. यह स्थापना की है येल, आक्सफ़र्ड और हार्वर्ड विश्वविद्यालयों से डिग्री प्राप्त राजनैतिक मनोविज्ञानी शान रोज़ेनबर्ग ने. उनकी राय है कि लोकतंत्र स्वयं को खा रहा है और इस स्थिति के लिए ‘हम लोग’ ज़िम्मेदार हैं. पश्चिमी क़िस्म के लोकतंत्र संसार भर में सिकुड़ रहे हैं और उनका स्थान दक्षिणपंथी लोकलुभावन सत्ताएं ले रही हैं जो मतदाताओं को जटिल प्रश्नों के सरल उत्तर प्रस्तुत कर रहे हैं. रोज़ेनबर्ग का तर्क है कि लोकतंत्र कठिन श्रम की अपेक्षा करता है और जो उसमें हिस्सेदार होते हैं उनसे अधिक अपेक्षाएं करता है. उसे ऐसे लोग चाहिये अपने से अलग मत रखनेवाले लोगों का आदर करें, उनका भी जो उन जैसे नहीं दीखते. वह नागरिकों से कहता है कि उन्हें सूचनाओं के अम्बार से अच्छा नबेर सकना चाहिये, बुरे को छोड़ते हुए. उनमें विचारशीलता, अनुशासन और तर्क की दरकार होती है. होता, लेकिन, यह है कि हमारे दिमाग़ तरह-तरह के पूर्वग्रहों से ग्रस्त रहते हैं. उस सुबूत को हम दरकिनार कर देते हैं जो हमारे लक्ष्य से मेल नहीं खाता और ऐसी सूचना स्वीकार करते हैं जो हमारे पूर्वग्रहों की पुष्टि करती है. आधुनिक लोकतंत्र के लिए हमारे दिमाग़ ख़तरनाक साबित हो रहे हैं. मनुष्य लोकतंत्र के लिए नहीं बने हैं. जिन संस्थाओं ने अभी तक लोगों को उनकी अलोकतांत्रिक वृत्तियों से बचाया था उन पर भद्र समुदाय कब्ज़ा घट रहा है.

सोशल मीडिया और इंटरनेट ने अधिक लोकतंत्र फैलाया है पर विडंबना यह है कि वह एकाधिकारवाद की ओर बढ़ रहा है. लोकतंत्र सामंजस्य और विविधता के लिए सहिष्णुता की दरकार होती है. दक्षिणपंथी कल्पित शत्रु बनाते हैं और उन पर सारी बरबादी की ज़िम्मेदारी थोप देते हैं. लोकलुभावन दक्षिणपंथ लोकतंत्र के बरक़्स कुल एक मांग करता है: वफ़ादारी की. वफ़ादारी का मतलब है लोकलुभावन राष्ट्रवादी दृष्टि के लिए समर्पण. एक एकाधिपत्य मूलक नेता के प्रति वफ़ादारी, लोकतंत्र द्वारा चाहे गये सोच-विचार से, अधिक आसान होती है.

रोजे़नबर्ग का निष्कर्ष है कि अमरीकियों की बहुसंख्या लोकतांत्रिक संस्कृति, संस्थाओं, विधियों या नागरिकता को समझने या उनके महत्व को स्वीकार करने में असमर्थ है. यह विश्लेषण मुख्यतः अमरीकी और पश्चिमी लोकतंत्र की स्थिति बल्कि दुर्दशा का आकलन है. दुखद आश्चर्य यह है कि यह स्वयं भारतीय लोकतंत्र की वर्तमान दुर्दशा का लगभग प्रामाणिक विश्लेषण भी है. जिन विकृतियों का ज़िक्र रोजे़नबर्ग ने किया है वे हमारे यहां भी हैं और शायद अधिक विकराल रूप में. यह सोचना कष्टकर भले है पर हमें इस मुक़ाम पर ठिठककर पूरी बेबाकी से यह सोचना ज़रूर चाहिये कि स्थिति कितनी भयावह है. यह भी सोचने की बात है कि हमारा कोई बुद्धिजीवी ऐसी निर्भीकता पर तर्कसंगत ढंग से हमारी लोकतांत्रिक गिरावट का विश्लेषण क्यों नहीं करता? अगर करता है तो हमें उसकी ख़बर इतनी कम क्यों है?