Home समाचार रफाल की आलोचना करते वक्त इन बातों का ध्यान रखना भी जरूरी...

रफाल की आलोचना करते वक्त इन बातों का ध्यान रखना भी जरूरी है

64
0

फ्रांस में आठ अक्टूबर को हुए एक हस्तांतरण समारोह के साथ पहला रफ़ाल युद्धक विमान भारत को मिल चुका है, भले ही वह अभी भारत नहीं पहुंचा है. भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने उस पर ‘ओम’ लिख कर और नारियल-फूल चढ़ा कर जो ‘शस्त्रपूजा’ की, उसकी भारत के विपक्षी नेताओं और मीडिया ने भी खूब खिल्लियां उड़ायीं. पिछले लोकसभा चुनावों से पहले विपक्ष और मीडिया रफ़ाल विमान के सौदे को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भ्रष्ट और चोर कह रहे थे. इस बात पर उस समय किसी का ध्यान नहीं था कि रफ़ाल के देश फ्रांस को भारत की इस घरेलू चख-चख से कहीं ठेस तो नहीं पहुंच रही होगी!

ठेस इसलिए, क्योंकि फ्रांस से भारत का जुड़ाव सिर्फ रफ़ाल सौदे तक ही सीमित नहीं है. फ्रांस यूरोपीय संघ का एकमात्र ऐसा देश है, जो एक लंबे समय से भारत की प्रतिरक्षा तैयारियों में उदारतापूर्वक हाथ बंटा रहा है. पहले रफ़ाल विमान के हस्तांतरण के समारोह में फ्रांस की रक्षामंत्री मदाम फ्लोरेंस पार्ली ने कहा कि उनका देश भारत के साथ न केवल व्यावहारिक और तकनीकी दृष्टि से सहयोग करेगा, बल्कि जब बात 36 रफ़ाल विमानों को समय पर देने की हो तो वह इस पर भी पूरा ध्यान देगा कि उनका डिज़ाइन भारतीय वायुसेना के विशिष्ट मानदंडों के अनुसार ही बने.

इससे भी महत्वपूर्ण है फ़्रांस की रक्षामंत्री मदाम फ्लोरेंस पार्ली का यह संदेश कि उनका देश भारत की सैन्यशक्ति को मज़बूती देने के लिए प्रतिबद्ध है. रक्षामंत्री राजनाथ सिंह जब फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों से मिले, तो उन्होंने भी एक बहुत ही स्पष्ट और ज़ोरदार अंदाज़ में टिप्पणी करते हुए कहा कि फ्रांस की राज्यसत्ता उग्र इस्लामी आतंकवाद से लड़ने के लिए वह सब कुछ करेगी, जो वह कर सकती है. हम इसे फ्रांसीसी दृढ़संकल्प की घोषणा भी मान सकते है.

यही नहीं. कुछ ही दिन पहले फ्रांस की सरकार ने वहां रहने वाले पाकिस्तानियों द्वारा आयोजित एक ऐसा भारत-विरोधी प्रदर्शन नहीं होने दिया, जिसमें वे पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के तथाकथित ‘राष्ट्रपति’ सहित कई अन्य लोगों को भी आमंत्रित करना चाहते थे. प्रेक्षक मानते हैं कि नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद से भारत और फ्रांस के बीच वास्तव में अपने ढंग का एक नया और काफ़ी चौंकाने वाला गंठबंधन बन रहा है.

इस गठबंधन के प्रमाण के तौर पर प्रेक्षक गिनाते हैं कि फ्रासं और भारत के बीच 11 अरब डॉलर का पारस्परिक व्यापार पहले से ही है. रफ़ाल-सौदा अकेले ही क़रीब 30 अरब डॉलर के बराबर है. इसके अतिरिक्त भारत को मिले फ्रांस के 49 मिराज युद्धक विमानों के अद्यतीकरण (अपग्रेडेशन) का भी तीन अरब डॉलर का एक अनुबंध है. मिराज विमानों का अद्यतीकरण भारत के लिए प्रतिरक्षा की दृष्टि से ही नहीं, तकनीकी दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है. 80 के दशक में ख़रीदे गये इन विमानों को आधुनिक बनाने का काम भारत में ‘एचएएल’ के कारख़ानों में किया जा रहा है. इसके लिए आवश्यक तकनीकी ज्ञान एवं साधन भारत को पहले ही मिल चुके हैं.

भारत फ्रांसीसी डिज़ाइन वाली छह स्कॉर्पीन पनडुब्बियां भी बना रहा है. उनके निर्माण के लिए आवश्यक तकनीकी ज्ञान भी उसे हस्तांतरित कर दिया गया है. इस समय मुंबई के मज़गांव डॉक में तीसरी स्कॉर्पीन पनडुब्बी बन रही है. पहली पनडुब्बी भारतीय नौसेना को मिल चुकी है. दूसरी भी बनकर तैयार है. इस समय उसकी अंतिम परीक्षाएं हो रही हैं.

भारत के लिए एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि यूरोपीय संघ से ब्रिटेन का तलाक हो जाने के बाद फ्रांस उसका एक बेहतर विकल्प बन सकता है. भारत के निवेशक अब तक ब्रिटेन को ही यूरोप में जाने का प्रवेश द्वार मानते रहे हैं. किंतु ब्रेग्ज़िट के बाद ब्रिटेन यूरोप का प्रवेश द्वार नहीं रह जायेगा. उसे सबसे पहले अपने यहां उन अव्यवस्थाओं एवं अराजकताओं से निपटने पड़ेगा, जिनका न तो वहां की जनता को और न ही सरकार को कोई यथार्थ आभास है.

तब इस बात की संभावना भी बढ़ जायेगी कि भारत और यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौते (फ्री ट्रेड एग्रीमेंन्ट) की लंबे समय से जो अनमनी वार्ताएं हो रहीं हैं, फ्रांस के सहयोग से उनमें नयी जान पड़ जाये. इन वार्ताओं में गतिरोध का एक बड़ा कारण जर्मनी है. वह चाहता है कि भारत उसके उत्पादों के लिए, विशेषकर उसकी कारों और खाद्य पदार्थों के आयात के लिए, अपने बाज़ार पूरी तरह खोल दे. लेकिन वह अपना श्रम बाज़ार भारतीयों के लिए नहीं खोलना चाहता. प्रेक्षकों का मानना है कि यूरोपीय संघ की सबसे बड़ी अर्थव्यस्था होने का दंभ जर्मनी को भारत के प्रति वैसा नरम रुख अपनाने नहीं देता, जैसे रुख का संकेत फ्रांस की माक्रों सरकार दे रही है.

भारत में इस तथ्य को भी नोट किया जाना चाहिये कि अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद, फ्रांस के विपरीत, ब्रिटेन ने पाकिस्तान समर्थकों के भारत विरोधी उग्र प्रदर्शन अपने यहां होने दिये. वहां भारतीय उच्चाय़ोग के भवन पर पथराव हुआ और खिड़कियों के कांच तोड़ दिये गये. यहा तक कि भारतीय तिरंगे को फाड़ दिया गया.

यही नहीं, ब्रिटेन की विपक्षी लेबर पार्टी के प्रमुख जेरेमी कॉर्बिन सहित कई लोगों ने कश्मीर के मसले पर भारत की प्रत्यक्ष या परोक्ष आलोचना भी की. लंदन में पाकिस्तानियों के ही नहीं, ख़ालिस्तानियों के भी भारत विरोधी प्रदर्शन होते रहते हैं. जैसे यह सब पर्याप्त न हो, कैम्ब्रिज के ड्यूक और उनकी पत्नी को चार दिनों की शाही यात्रा पर पाकिस्तान भेजा जा रहा है, यह जानते हुए कि पाकिस्तान इसका भरपूर प्रचारात्मक लाभ उठायेगा. कई बार ऐसा लगता है, मानो ब्रिटेन आज भी पाकिस्तान के समर्थन की उसी नीति पर चल रहा है, जिस पर चलते हुए सात दशक पूर्व उसने भारत का विभाजन कर पाकिस्तान बनाया था.

दूसरी ओर फ्रांस ने भारत को मिलने जा रहे 36 में से पहला रफ़ाल सौंपे जाने के समारोह के वक्त अपने यहां कोई भारत विरोधी प्रदर्शन नहीं होने दिया. ऐसा करके उसने यही संदेश दिया है कि वह भारत के साथ दूरगामी घनिष्ठ संबंध चाहता है. इसका एक प्रबल प्रमाण फ्रांस ने 2018 में भी दिया था.

हिंद महासागर में चीन की बढ़ती हुई सक्रियता का उत्तर देने के लिए मोदी सरकार इस इलाके के विभिन्न देशों में नौसैनिक अड्डे बनाने या ऐसे समझौते करने में लगी हुई है जरूरत पड़ने पर जिनके उपयोग की सुविधा उसे मिल जाये. जनवरी 2018 में भारत और फ्रांस के बीच नौसैनिक सहयोग के एक ऐसे ही समझौते को अंतिम रूप दिया गया.

इस समझौते में कहा गया है कि भारतीय नौसेना, अफ्रीका के पास लाल सागर पर बसे जिबूती में फ्रांस के मुख्य नौसैनिक अड्डे तथा दक्षिणी हिंद महासागर के रेउन्यों द्वीप समूह जैसे फ्रांसीसी नौसैनिक अड्डों का उपयोग कर सकती है. फ्रांस ही यूरोप का एकमात्र ऐसा देश है, जिसके हिंद महासागर और प्रशांत महासागर में कुल चार नौसैनिक अड्डे हैं. उसके पास अबू धाबी में भी एक नौसैनिक सुविधा है. समझा जाता है कि भारत को उसके इस्तेमाल की भी अनुमति मिल जायेगी.

मई 2019 में गोवा के पास भारतीय और फ्रांसीसी नैसैना ने अपना 17वां साझा युद्धाभ्यास किया, जिसे दोनों देशों की नौसेनाओं का अब तक का सबसे बड़ा युद्धाभ्यास बताया जाता है. मई के अंत में एक ऐसा ही युद्धाभ्यास जिबुती के फ्रांसीसी नौसैनिक अड्डे की देखरेख में भी हुआ. भारत और फ्रांस के बीच नौसैनिक अभ्यासों की परंपरा 1983 में शुरू हुई थी. 1998 में भारत द्वारा दूसरी बार परमाणु परीक्षणों के बाद उस पर लगे प्रतिबंधों को उठाने में भी फ्रांस की प्रमुख भूमका रही है.

जर्मनी यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यस्था का धनी ज़रूर है. पर उसके पास न तो फ्रांस जैसा उच्च स्तर का रक्षा-उद्योग है और न ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट. फ्रांस के पास ये दोनों विशेषताएं हैं. वह सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का भी प्रबल समर्थक है.

जर्मनी की चांसलर अंगेला मेर्कल पहले ही कह चुकी हैं कि वे 2021 तक ही चांसलर रहेंगी. उसके बाद चुनाव नहीं लड़ेंगी. उनके बाद कौन चांसलर बनेगा, कोई नहीं जानता. जबकि फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों का कार्यकाल मई 2022 तक चलेगा. फ्रांस के पिछले राष्ट्रपतियों की अपेक्षा भारत के प्रति उनका कुछ अधिक ही लगाव है. ब्रिटेन से भारत फिलहाल कोई आशा नहीं कर सकता. वह ब्रेग्ज़िट के बाद अगले कई वर्षों तक अपने आप को ही पटरी पर लाने में व्यस्त रहेगा. यही कारण है कि भारत की नरेंद्र मोदी सरकार फ्रांस के साथ संबंधों के विस्तार को खासा तवज्जो दे रही है.