2024 के आम चुनाव को लेकर अब तक ये महसूस नहीं हुआ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने कोई बड़ा चैलेंज है. कई बार तो ऐसा भी लगता है जैसे बीजेपी (BJP) के लिए सत्ता में वापसी की लड़ाई एकतरफा ही है.
कहने को तो राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर निकले हैं और अरविंद केजरीवाल मेक इंडिया नंबर 1 मिशन पर निकले हुए हैं – और नीतीश कुमार भी लालू यादव से हाथ मिला कर पूरे विपक्ष को एकजुट करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं.
नीतीश कुमार और लालू यादव के हाथ मिलाने से राहुल गांधी या अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम को भले ही बहुत फर्क पड़ता हुआ समझ में न आ रहा हो, लेकिन बीजेपी पहले से ही अलर्ट हो गयी है – और अपने तरीके से जमीन स्तर पर सीरियस तैयारियों में जुट गयी है.
नीतीश कुमार की तैयारी यूपी और बिहार के साथ साथ झारखंड में भी बीजेपी को घेरने पर है, ताकि उसे कम से कम सीटों पर रोका जा सके. बीजेपी को ये बात इसलिए भी समझ में आ रही है क्योंकि बिहार में वो सत्ता से बेदखल हो चुकी है. उत्तर प्रदेश में बीजेपी सत्ता बरकरार रखने में कामयाब जरूर रही है, लेकिन चुनौतियां भी तो ढेरों हैं.
और यही वजह है कि बीजेपी एक ठोस रणनीति तैयार कर बड़े ही सधे कदमों के साथ आगे बढ़ती चली जा रही है. जिस तरीके का नया सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला बीजेपी ने खोज निकाला है, यूपी और बिहार के क्षेत्रीय दलों के पैरों तले जमीन खिसक सकती है.
बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चे की टीम युद्ध स्तर पर काम में लगी हुई है – और यूपी के डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक सहित कई नेताओं को अलग अलग जिम्मेदारी मिली हुई है. यूपी में जगह जगह चल रहे बीजेपी के पसमांदा सम्मेलन उसी रणनीति का हिस्सा है. यूपी में ब्रजेश पाठक के साथ एक और मंत्री दानिश आजाद अंसारी भी इस काम में लगे हैं, जबकि बिहार में ये मिशन बीजेपी नेता संजय पासवान कोऑर्डिनेट कर रहे हैं.
हाल ही में लखनऊ में पसमांदा बुद्धिजीवी सम्मेलन कराया गया और बीजेपी का दावा है कि पसमांदा मुसलमानों (Pasmanda Muslims) के लिए ये अपनी तरह का पहला कार्यक्रम है. बताते हैं कि सम्मेलन के जरिये बीजेपी साढ़े चार करोड़ अल्पसंख्यक वोटर तक पहुंचने की कोशिश कर रही है.
बीजेपी ने पसमांदा मुस्लिमों के सम्मेलन को बुद्धिजीवियों के सम्मेलन के तौर पर वैसे ही प्रचारित कर रही है जैसे यूपी चुनाव 2022 के दौरान बीएसपी जगह जगह ब्राह्मण सम्मेलन करा रही थी – और नाम दिया था प्रबुद्ध सम्मेलन.
संभव है ऊपर से लोगों को बीजेपी की ये मुहिम सिर्फ पसमांदा मुसलमानों तक ही सीमित लग रही हो, लेकिन दायरा काफी विस्तृत है. पसमांदा मुसलमानों के साथ साथ बीजेपी की नजर पिछड़े वर्ग और दलित वोटर पर भी – और मायावती (Mayawati) के ताबड़तोड़ ट्वीट की वजह भी यही लगती है.
M-Y फैक्टर को नेस्तनाबूद करने की तैयारी
यूपी और बिहार की राजनीति में M-Y फैक्टर का प्रभाव अब भी काफी गहरा है. उत्तर प्रदेश में अगर बीजेपी को चुनौती मिली है तो M-Y फैक्टर के राजनीतिक समीकरणों से ही – और बिहार में भी सत्ता से हाथ धोना पड़ा है तो M-Y फैक्टर के कारण ही.
बीजेपी की नयी सोशल इंजीनियरिंग की काट नहीं खोजी गयी तो क्षेत्रीय दलों की शामत आने वाली है
एक रिपोर्ट के मुताबिक, बीजेपी ने अपने इंटरनल सर्वे में पाया है कि उत्तर प्रदेश के 22 हजार बूथों पर वो कमजोर पड़ रही है. तैयारी चूंकि अगले आम चुनाव की हो रही है, लिहाजा लोक सभा सीटों के हिसाब से ही तैयारियां चल रही हैं. यूपी के 80 लोक सभा क्षेत्रों के लिए 70 हजार से ज्यादा बूथ बनाये गये हैं. बीजेपी के रणनीतिकारों ने जिन बूथों की पहचान की है उनमें ज्यादातर मुस्लिम, यादव और जाटव बहुल हैं.
यूपी में बीजेपी मिशन में सक्रियता से जुटे मुख्तार अब्बास नकवी घूम घूम कर अपने समाज के लोगों को M-Y फैक्टर की नयी परिभाषा समझा रहे हैं. कहते हैं, कुछ राजनीतिक दलों ने उत्तर प्रदेश में M-Y फैक्टर को सांप्रदायिकता का सिंबल बना रखा था, लेकिन वो मोदी-योगी फैक्टर में तब्दील हो चुका है. वैसे ये परिभाषा यूपी चुनाव के दौरान ही गढ़ी गयी थी.
पसमांदा मुसलमानों के सम्मेलन लखनऊ के अलावा रामपुर और बरेली में भी आयोजित किये जा चुके हैं और ऐसे ही बाकी जगह भी होने हैं. बरेली के सम्मेलन में यूपी सरकार के मंत्री धर्मपाल सिंह, नरेंद्र कश्यप और दानिश आजाद अंसारी शामिल हुए.
दानिश अंसारी को यूपी में बीजेपी की नयी सरकार बनने के बाद लाया गया है. दानिश अंसारी ने पिछली सरकार के मुस्लिम मंत्री मोहसिन रजा की जगह लाया गया है – और उसकी खास वजह ये है कि दानिश अंसारी पसमांदा यानी पिछड़े मुसलमान हैं, जबकि मोहसिन रजा मुस्लिम समुदाय के फॉर्वर्ड तबके से आते हैं.
पसमांदा सम्मेलन के साथ साथ स्नेह यात्रा भी निकाली जा चुकी है और पता चला है कि मुस्लिम आबादी वाले 44 हजार से ज्यादा वोटिंग बूथों की लिस्ट तैयार की गयी है. कोशिश है कि बीजेपी हर बूथ के तहत कम से कम ऐसे 100 मुस्लिम परिवारों से संपर्क किया जाये जिन्हें पिछड़े वर्ग के लिए चलायी जाने वाली सरकारी योजनाओं का फायदा मिल रहा है.
हाल ही में हुए बिहार के गोपालगंज उपचुनाव में भी मुस्लिम वोटर की बड़ी भूमिका देखी गयी है. गोपालगंज में असदुद्दीन ओवैसी ने पसमांदा मुस्लिम को ही AIMIM का उम्मीदवार बनाया था, जिसने 12 हजार से ज्यादा वोट पाकर बीजेपी उम्मीदवार के लिए राह आसान कर दी और तेजस्वी यादव की पार्टी देखती रह गयी. अब तो हर कोई पहले से ही मान कर चल रहा है कि ओवैसी गोपालगंज की तरह कुढ़नी में भी आरजेडी का बेड़ा गर्क करने में लग गये हैं.
पिछड़े तबके के पसमांदा मुसलमानों के साथ साथ बीजेपी अति पिछड़े वर्ग के वोटर को साधने में भी जुटी है साथ ही दलितों के इलाके में भी घुसपैठ शुरू कर चुकी है – ऐसे सबसे ज्यादा खतरा तो उन पर ही मंडरा रहा है जो अब तक M-Y फैक्टर की राजनीति करते आये हैं.
सिर्फ मायावती को ही फिक्र क्यों है?
बीजेपी के पसमांदा सम्मेलनों पर सबसे कड़ी प्रतिक्रिया बीएसपी नेता मायावती की तरफ से आयी है. मायावती ने ऐसे कार्यक्रमों को बीजेपी और संघ का नया शिगूफा बताया है. हालांकि, मायावती की ये प्रतिक्रिया तब आयी है जब बीजेपी ने बीएसपी का हाल भी चिराग पासवान की पार्टी जैसा कर दिया है.
मायावती ने एक के बाद एक कई ट्वीट में बीजेपी के पसमांदा सम्मेलन पर भड़ास निकाली है. मायावती ने ट्विटर पर लिखा है, ‘भाजपा की मुस्लिम समाज के प्रति नकारात्मक सोच का परिणाम है कि इनकी सरकार में भी वे लगभग उतने ही गरीब, पिछड़े, त्रस्त और जान-माल-मजहब के मामलों में असुरक्षित हैं, जितने वे कांग्रेसी राज में थे.’
मायावती की ये प्रतिक्रिया स्वाभाविक लगती है, लेकिन बड़ी देर से आयी है. मायावती की नींद तब खुल रही है जब बहुत कुछ तबाह हो चुका है और अब अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है. मायावती को लगता था कि बीएसपी का वोट बैंक उनको छोड़ कर कहीं नहीं जाने वाला, लेकिन चुनाव दर चुनाव वो उनके दूर खिसकता जा रहा है.
असल में 2024 के लिए बीजेपी पसमांदा मुस्लिम समुदाय के साथ साथ गैर-जाटव दलित वोटर पर भी जोर दे रही है. मायावती दलितों में जाटव तबके से आती हैं और बीजेपी गैर-जाटव वोटर को अपनाने की वैसे ही कोशिश कर रही है जैसे अब तक गैर-यादव ओबीसी वोटर को अपने पाले में करने का प्रयास करती रही है. ऐसा नहीं कह सकते कि बीजेपी ये कोई नया काम कर रही है, लेकिन ये जरूर कह सकते हैं कि वही काम नये तरीके से और मिशन की तरह कर रही है.
इंडियन एक्सप्रेस ने एक रिपोर्ट में लिखा है कि बीजेपी नेताओं का मानना है कि अगर इस कॉम्बो समीकरण का 10 फीसदी वोट भी पार्टी को मिल जाता है तो यूपी और बिहार जैसे राज्यों में बड़ी राहत मिलेगी.
अब संविधान दिवस पर पटना में 26 नवंबर को बीजेपी एक रैली करने जा रही है जिसमें EBC, दलित, आदिवासी और पसमांदा मुस्लिमों को शामिल कर उनकी आवाज उठाने की कोशिश होगी – ताकि उनकी पुरानी मांगों की डिमांड सक्रिय रूप से शुरू की जा सके.
ये टास्क यूपी में बीजेपी ने डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री दानिश आजाद अंसारी को दे रखा है – और बिहार में ये काम बीजेपी नेता संजय पासवान संभाल रहे हैं.
ब्रजेश पाठक को डिप्टी सीएम बनाये जाते वक्त माना जा रहा था कि यूपी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर ठाकुरवाद के आरोपों को बैलेंस करने के लिए बीजेपी नेतृत्व ने ये तरीका खोजा है – फिर तो सवाल ये उठता है कि बेबी रानी मौर्य जैसी नेता के होते हुए ब्रजेश पाठक को ऐसी जिम्मेदारी क्यों दी गयी है?
ऐसा इसलिए क्योंकि ब्रजेश पाठक लंबे अरसे तक मायावती के सोशल इंजीनियरिंग वाले एक्सपेरिमेंट में प्रमुख कर्ताधर्ता रहे हैं. ब्रजेश पाठक, दरअसल, बीएसपी से ही बीजेपी में आये थे. मायावती ने तो ब्रजेश पाठक की दलित समुदाय से इतर अपना सपोर्ट बेस कायम करने में मदद ली थी, लेकिन बीजेपी उसी अनुभव का अलग तरीके से फायदा लेना चाहती है. ब्रजेश पाठक के पुराने अनुभवों की मदद से बीजेपी दलित समुदाय में अपनी घुसपैठ बढ़ाने की रणनीति पर काम कर रही है – ऐसे भी समझ सकते हैं कि बीएसपी के लिए सतीश चंद्र मिश्रा को घेरने की तैयारी हो रही है.
इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में ब्रजेश पाठक कहते हैं, अपने कल्याणकारी कार्यक्रमों के जरिये हम हर तबके तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं जो गरीब है. हम उनकी मदद करना चाहते हैं जो मुस्लिम समुदाय में शोषित हैं… पसमांदा मुस्लिम, चूड़ी बेचने वाले, बुनकर और वे जो सब्जी बेचते हैं – ताकि सरकारी योजनाओं की मदद से उनको शिक्षा, आवास और पीने का पानी मुहैया कराया जा सके.