Home समाचार सांसदों-विधायकों पर सुप्रीम तलवार, जाएंगे जेल या जाएगी सदस्यता?

सांसदों-विधायकों पर सुप्रीम तलवार, जाएंगे जेल या जाएगी सदस्यता?

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क्या सौ से ज्यादा सांसदों और विधायकों की शामत आने वाली है. क्या इन सांसदों विधायकों पर जेल जाने की या संसद विधानसभा की सदस्यता जाने की तलवार लटक रही है. सुप्रीम कोर्ट ने तीन अलग-अलग मामलों की सुनवाई के दौरान जिस तरह की मौखिक टिप्पणियां की है उसे देखते हुए तो यही आभास होता है.

सुप्रीम कोर्ट को कानून मित्र विजय हंसारिया की रिपोर्ट के जरिए बताया गया है कि 962 से सांसदों-विधायकों पर मुकदमें पिछले पांच सालों से अटके पड़े हैं और इन पर तेजी से सुनवाई किया जाना जरुरी है.

अगर माननीयों पर आरोप साबित हो जाते हैं और दो साल से ज्यादा की सजा होती है तो इन सब की सदस्यता जाएगी और यह माननीय जेल जाएंगे. एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिया है कि वह सांसदों विधायकों को अनुच्छेद 105 के तहत कुछ भी बोलने या वोट देने पर किसी अदालत में चुनौति नहीं दे सकने की मिली छूट की समीक्षा करने की पहल कर सकता है. अगर ऐसा हुआ तो सांसदों विधायकों की संसद या विधानसभा में हर हरकत, हर बयान, हर वोटिंग पर कड़ी नजर रहेगी. तीसरा मामला हेट स्पीच को लेकर है. सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि सांसद विधायक अपने पद की गरिमा के खिलाफ जाते हुए अनाप शनाप बयान देते रहते हैं जिस पर लगाम कसे जानी की जरुरत है. अब यह काम अगर संसद खुद कानून बनाकर करे तो ठीक नहीं तो कोर्ट कुछ ऐसे निर्देश जारी करने के संकेत दे रहा है जो शायद सांसदों विधायकों को पसंद नहीं आए. कुल मिलाकर यह तीनों मामले ऐसे हैं जिनके फैसले मौजूदा व्यवस्था के खिलाफ गए तो देश में संसदीय राजनीति की दशा दिशा हमेशा हमेशा के लिए बदल जाएगी. क्या ऐसा हो पाएगा बड़ा सवाल है.

बड़ा सवाल इसलिए है क्योंकि जब सांसदों विधायकों और अन्य जनप्रतिनिधियों के हितों पर कुठाराघात होता है, जब उनके अधिकार और आजादी की हदबंदी की जाती है तो सभी राजनीतिक दल एक हो जाते हैं. आपको ध्यान होगा कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट ने दो साल या उससे ज्यादा सजा पाने वाले जनप्रतिनिधियों की सदस्यता तत्काल प्रभाव से खत्म करने और छह साल तक चुनाव लड़ने पर रोक का आदेश पारित किया था. यानि अगर किसी माननीय को तीन साल की सजा हुई तो नेताजी छह साल चुनाव नहीं लड़ पाएंगे और तीन साल की सजा काटेंगे यानि कुल मिलाकर नौ साल तक चुनाव मैदान से दूर रहेंगे.

इस आदेश के पहले शिकार चारा घोटाले में फंसे लालू प्रसाद यादव हुए थे जो अभी तक कसक झेल रहे हैं, जेल और अदालत के चक्कर काट रहे हैं लेकिन तब हुआ क्या था. मनमोहन सिंह सरकार रातों रात एक अध्यादेश ले आई थी. इस अध्यादेश में बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की गयी थी ताकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना भी न हो और माननीय सांसदों विधायकों को कुछ राहत भी मिल जाए. अध्यादेश में कहा गया कि ऐसे विपरीत फैसले आने पर ऊपरी अदालत जाने का मौका संबंधित जनप्रतिनिधि को दिया जाए और अदालती आदेश तक सदस्यता रद्द नहीं की जाए. इस अध्यादेश को बीजेपी समेत सभी दलों ने समर्थन किया था. तब राहुल गांधी ने अचानक दिल्ली के प्रेस क्लब आ कर अध्यादेश फाड़ दिया था. आज भी बीजेपी के नेता राहुल गांधी की इस हरकत को प्रधानमंत्री की मर्यादा से जोड़ते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि अध्यादेश क्या था और उसका मकसद किस तरह से भ्रष्ट नेताओं को बचाने का था.

अब सुप्रीम कोर्ट का एक मामले की सुनवाई के दौरान कहना है कि जनप्रतिनिधियों को जो खुली छूट मिली हुई है उस पर फिर से गौर करने की जरुरत है या नहीं इस पर बात करने की जरुरत है. दरअसल संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के तहत किसी भी सांसद और विधायक को सदन की कार्यवाई के दौरान बोलने या वोट देने का पूरी आजादी है और उसे किसी भी रुप में अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती. यह फैसला कोर्ट ने 1998 में किया था जब वह नरसिंह राव सरकार को बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों की कथित खरीद के मामले की सुनवाई कर रहा था. आरोप था कि सांसदों ने शिबू सोरेने के नेतृत्व में तत्कालीन नरसिंह राव सरकार को समर्थन देने के बदले में पैसे लिए. कोर्ट का कहना था कि चूंकि सांसदों को संविधान की तरफ से छूट मिली हुई है इसलिए मामला बनता नहीं है. इसके बाद शिबू सोरेन की पुत्रवधु सीता सोरेन पर 2012 के राज्यसभा चुनाव में पैसे लेकर एक निर्दलीय उम्मीदवार का नामांकन करने और वोट देने का आरोप लगा.

इस पर झारखंड हाई कोर्ट ने सीता सोरेन पर मुकदमा चलाने की इजाजत दी. इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनोति दी गयी. सीता सोरेन के वकील के साथ साथ भारत सरकार के सोलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने भी कहा कि यह मामला 1998 के फैसले के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए यानि सीता सोरेन की वोटिंग को चैलेंज नहीं किया जा सकता. अब अदालत के सामने दलील दी गयी है कि जनप्रतिनिधि अगर पैसा लेकर सवाल पूछ रहे हैं या वोट दे रहे हैं तो कम से कम ऐसे मामलों पर अदालती सुनवाई होनी चाहिए. वह क्या बोलते हैं या बयान देते हैं या आरोप लगाते हैं उस पर भले ही छूट मिलती रहे. इस पर सुर्पीम कोर्ट ने विचार करने पर सहमति दी है. यानि एक संभावना खुली है कि छूट की हद में रिश्वतखोरी नहीं आएगी. ऐसा हुआ तो पैसा लेकर सरकारे पलटने या बचाने का रास्ता बंद हो जाएगा जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा ही रहेगा.

दूसरा मामला नेताओं की हेट स्पीच से जुड़ा हुआ है. ताजा मामला आजम खान का है जिनकी सदस्यता जाती रही है. उन्होंने एक रेप केस को राजनीति साजिश बताया था और अफसरशाही को लपेटा था. लेकिन ऐसे बहुत से नेता हैं जिनके बयानों को अदालतों ने गैरजरुरी और भड़काने वाला बताया है लेकिन बयान बहादुरों पर रोक नहीं लग सकी है. अब सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि सांसदो विधायकों से अपेक्षा की जाती है कि वह संविधान की मर्यादा का ध्यान रखते हुए बेतुके बयानों से बचेंगे. नेताओं को स्वयं संयम की पालन करना चाहिए लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. इस पर भारत सरकार की तरफ से कहा गया कि मामला गंभीर है लेकिन ऐसी हेट स्पीच रोकने के लिए कानून बनाने या निर्देश जारी का काम संसद पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए जहां सांसद आपस में बहस कर कर अंतिम नतीजे पर पहुंच सकेंगे. लेकिन कोर्ट का कहना था कि नेता संयम से काम नहीं ले रहे हैं अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि कुछ भी बोलने के बाद भी उनका कुछ बिगड़ेगा नहीं लिहाजा इस मसले पर गंभीरता से सुनवाई जरुरी है.

सरकार का कहना है कि अभी भी आईपीसी और सीआरपीसी के तहत नेताओं के भड़काऊ बयानों पर रोक लगाने के प्रावधान है और इसमें कुछ नये सख्त प्रावधान अगर जोड़ने है तो यह काम सुप्रीम कोर्ट को संसद पर ही छोड़ देना चाहिए. कोर्ट का कहना था नेताओं पर रोक नहीं लग रही है, सब को लगता है कि उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है इसलिए उन्हें ऐसी टिप्पणी करनी पड़ रही है. यह अपने में गंभीर टिप्पणी है जो बताती है कि कोर्ट का रुख सख्त है और अगर संसद ने पहल नहीं की तो कोर्ट आगे और भी ज्यादा सख्त रुख अपना सकता है.

तीसरा मामला माननीयों के खिलाफ चल रहे ईडी और सीबीआई के मामलों का है. इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने वकील विजय हंसरिया को न्याय मित्र बनाया था जिनकी रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले पांच सालों से 962 सांसदों विधायकों के खिलाफ इस तरह के मामले चल रहे हैं और फैसला होना बाकी है. हैरत की बात है कि दस राज्यों के हाई कोर्ट ने उनके यहां चल रहे ऐसे मामलों की जानकारी अभी तक सुप्रीम कोर्ट को नहीं दी है. कोर्ट को बताया गया है कि ईडी के हवाला से जुड़े मामले 51 सांसदों और 71 विधायकों के खिलाफ चल रहे हैं. यहां यह साफ नहीं है कि इन में से कितने मौजूदा माननीय हैं और कितने पूर्व हो गये हैं या मर चुके हैं.

सीबीआई का कहना है कि वह 121 केस पर काम कर रही है. इसमें 51 सांसद हैं जिसमें से 14 मौजूदा हैं और 37 पूर्व. पांच की निधन हो चुका है. इसी तरह सीबीआई 112 विधायकों के खिलाफ मामलों की जांच कर रही है जिसमें से 34 मौजूदा हैं और 78 पूर्व. यहां भी 9 की मौत हो चुकी है. बड़ी संख्या में पूर्व का होना बताता है कि केस पांच साल से ज्यादा समय से चल रहे हैं. यहां यह बताना जरुरी है कि विपक्ष जांच एजेंसियों के दुरुपयोग की बात करता रहा है. ईडी के मामलों में भी तीन फीसद से कम कंविकशन रेट है. प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में लोकसभा में कहा था कि सांसदों पर आरोप लगते हैं, केस चलता है जिसका फायदा उनके विपक्षी उठाते हैं ऐसे में फास्ट ट्रेक कोर्ट का गठन होना चाहिए लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं.

अब एक तरफ अदालतों में केस लंबे चलते हैं दूसरी तरफ सबूतों के अभाव में बड़ी संख्या में माननीय बरी हो जाते हैं तीसरी तरफ सियासी दुश्मनी का आरोप सत्ता पक्ष पर लगते हैं तो चौथी तरफ जांच एजेंसियों पर भी दबाव में काम करने का आरोप लगता है. ऐसे में इस तीसरे मामले में जनप्रतिनिधियों को कितना राहत मिलेगी यह तो तय नहीं लेकिन हेट स्पीच और पैसा लेकर सदन में गलत आचरण करने वालों के प्रति कठोर काईवाई करने की पहल सुप्रीम कोर्ट ने जो करने की संभावना जताई है उससे माननीयों के कान खड़े हो जाने चाहिए. आम जनता की नजर में राजनेताओं की प्रतिष्ठा वैसे भी गिरी है और बची खुची साख के भी जाने का खतरा मंडरा रहा है. संसद को मिल बैठकर इस पर कोई फैसला करना चाहिए. कितना अच्छा हो कि संसद के नये भवन में जाने से पहले ऐसा कोई फैसला हो जाए.