अंजलि जब कभी दक्षिण भारत के एक शहर की गलियों में घूमती है तो वह ऐसा कोई जवाब ढूंढने अथवा बदला लेने के लिए नहीं करती है। किसी समय उसे यहां पर वेश्यावृत्ति में धकेला गया था। इस बुराई से बच कर निकली 39 वर्षीय यह महिला रायचूर में गैर कानूनी देवदासी प्रथा (जिसमें लड़कियां मंदिरों के प्रति समर्पित होती हैं और उन्हें सैक्स स्लेव बनाकर रखा जाता है) की अन्य पीड़ितों की तलाश में रहती है ताकि उन्हें सरकार की पुनर्वास योजनाओं से लाभान्वित किया जा सके। अंजलि कर्नाटक सरकार के उस पहल का हिस्सा है जिसमें मानव तस्करी की शिकार महिलाओं के लिए कार्य किया जाता है और उनकी सहायता की जाती है। अंजलि का कहना है कि देवदासी प्रथा गैर कानूनी है, इसके बावजूद यह चोरी-छिपे जारी है। अंजलि ने अपना वास्तविक नाम नहीं बताया क्योंकि उसके बच्चों को यह पता नहीं है कि एक किशोरी के तौर पर उसकी मानव तस्करी की गई थी।
एक समुदाय नेता और तारस की सदस्य (महिलाओं का संगठन जो 12 राज्यों में काम करता है) ने बताया कि इस प्रथा के गैर कानूनी होने के कारण इसकी शिकार महिलाएं सामने आने से डरती हैं। उन्हें यह डर होता है कि उन्हें पुलिस कार्रवाई का सामना करना पड़ सकता है।देशभर में कई राज्य सरकारें सर्वाइवर नैटवर्क तथा सामुदायिक समूहों की मदद से ऐसी महिलाओं की पहचान करने और उनकी सहायता के लिए कार्य कर रही हैं। इस तरह के मामलों में बच निकली महिलाओं को न केवल यह पता होता है कि पीड़ित महिलाएं कहां मिल सकती हैं बल्कि वे इस समस्या और शर्म से बाहर आने में अधिकारियों की काफी मदद कर सकती हैं। इस प्रथा से पीड़ित महिलाओं और राज्य सरकारों के बीच विश्वास बहाल करने के लिए समुदाय आधारित बचाव प्रयासों तथा मोबाइल एप्स का सहारा लिया जा रहा है।
2016 में मानव तस्करी से देशभर में 23,100 लोगों जिनमें 60 प्रतिशत बच्चे हैं, को बचाया गया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले साल के मुकाबले यह आंकड़ा काफी अधिक है। मानव तस्करी के मामलों को देखने वाली चैरिटी संस्थाओं का मानना है कि वास्तविक संख्या काफी अधिक हो सकती है तथा प्रदेश सरकारें और अधिक पीड़ितों का पता लगाने का प्रयास कर रही हैं। भारत सरकार की ओर से मानव तस्करी से बचाए गए लोगों के लिए कई प्रकार की पुनर्वास योजनाएं शुरू की गई हैं जिसके तहत उनकी काऊंसलिंग करने के अलावा उन्हें भूमि देने तथा बुनाई-कढ़ाई का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके बावजूद कम ही लोगों को इसका लाभ मिल पाता है। अधिकतर सर्वाइवर्स को अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं होती है तथा वे किसी चैरिटी या वकील के बिना सहायता का लाभ नहीं उठा पाते हैं।
राज्य सरकारों की ओर से समय-समय पर सर्वाइवर्स की पहचान की जाती है और इनकी संख्या कागजों में दर्ज की जाती है लेकिन कई बार जब वे वापस अपने गांव लौट जाती हैं तो उनका पता लगाना मुश्किल होता है। कर्नाटक जैसे राज्य में अंजलि जैसे लोग पीड़ितों के पुनर्वास की देखरेख करने में सरकार की सहायता कर रहे हैं। कर्नाटक राज्य महिला विकास निगम की प्रबंध निदेशक वसुंधरा देवी का कहना है कि पीड़ितों के बचाव का यह सिस्टम काफी अच्छा है।
इसी प्रकार पड़ोसी राज्य तेलंगाना में राज्य एड्स नियंत्रण सोसायटी मानव तस्करी से बचाई गई महिलाओं के स्वास्थ्य पर नजर रखती है। जन सेवक अन्ना प्रसन्ना कुमारी का कहना है कि इस तरह के मामलों में पीड़ित महिलाएं सरकार को कुछ जानकारी देने में कतराती हैं लेकिन अपनी पुरानी साथियों को जानकारी दे देती हैं। कुमारी ने बताया कि दक्षिणी तेलंगाना के पांच जिलों में ट्रायल के आधार पर एक मोबाइल एप्प शुरू की गई है जिसकी सहायता से देवदासियों के स्वास्थ्य पर नजर रखी जा रही है। बंगाल में उत्थान नामक मोबाइल एप्प के जरिए मानव तस्करी की शिकार महिलाओं का पुनर्वास किया जा रहा है। इस एप्प के जरिए यह देखा जाता है कि सरकारी अधिकारी इन मामलों में कितने संवेदनशील और कुशल हैं।
2018 में शुरू हुई इस योजना के तहत मिलने वाली फीडबैक को वरिष्ठ अधिकारियों को भेजा जाता है। इस एप्प का इस्तेमाल करने वाली सर्वाइवर्स का कहना है कि इसके जरिए उन्हें तेजी से सहायता उपलब्ध हुई है। मानव तस्करी विरोधी चैरिटी संजोग की मनोवैज्ञानिक पॉम्पी बनर्जी का कहना है कि इस एप्प की सहायता से नीति निर्माताओं, सर्वाइवर और अधिकारियों के बीच संवाद कायम करने में सहायता मिलती है। मानव तस्करी विरोधी चैरिटीज के अनुसार सर्वाइवर नैटवर्क विभिन्न राज्यों में फैला हुआ है। रिलीज्ड बोंडिड लेबरर्स एसोसिएशन अन्य लोगों को दासता से मुक्त करवाने, बंधुआ मजदूरी में फंसे पीड़ितों की पहचान करने, पुलिस को इस बारे में बताने तथा बचाव अभियान में भाग लेने का काम करती है। सरकारी अधिकारियों ने अब इस तरह के नैटवक्र्स के महत्व को समझना शुरू कर दिया है।
अंजलि के लिए देवदासी प्रथा में झोंकी गई महिलाओं का पता लगाना आसान है हालांकि मानव तस्कर अपने तौर-तरीके बदलते रहते हैं। उन्होंने बताया, ”लोग लड़कियों को छुपा कर रखते हैं और उनके गले में माला नहीं डालते हैं जिससे यह पता चलता है कि वे समॢपत हैं।” पारम्परिक तौर पर ऐसी पीड़ित महिलाओं को नैकलेस पहनाया जाता है। ”लेकिन मैं जानती हूं क्योंकि मैं कुछ ऐसे संकेतों को पहचान सकती हूं जिन्हें सरकारी अधिकारी नहीं पहचान सकते। मैं चुपके से उनका दरवाजा खटखटाती हूं और सच्चाई धीरे-धीरे बाहर आ जाती है। इसके बाद मैं उन्हें बताती हूं कि उन्हें कैसे और कहां से सहायता मिल सकती है।