हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला जमींदोज हुई 7 मंजिला इमारत से फिर से कई सवाल खड़े हो गए हैं. सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि शिमला शहर रहने के लिए सुरक्षित है भी या नहीं. वहीं, निर्माण को लेकर तय मानकों की अनदेखी के लिए कौन जिम्मेवार है, हम लोग या फिर प्रशासन. क्यों नियमों को ताक पर रखकर निर्माण किया जाता है या इसके पीछे पैसा कमाने का लालच है या फिर वोट बैंक के चलते राजनेता खतरे की इस बड़ी आहट को अनसुना कर देते हैं.
इस घटना के जो प्रभावित हैं उनकी हालत तो ये है कि जो कपड़े पहने थे वही बचे हुए हैं, आधा दर्जन से ज्यादा परिवारों की जीवनभर की पूंजी आंखोंं के सामने मलबे में तब्दील हो गई है. राजीव सूद अपना चश्मा तक साथ नहीं ले पाए, बाकी चीजें तो छोड़ दिजिए. उनकी बेटी के पढ़ाई-लिखाई से अर्जित सारे ईनाम समेत तमाम दस्तावेज दफन हो गए.
पीड़ितों ने सुनाया दर्द
साल 1984 से शिमला में रह रहे बिल्डर ईश्वर चंदेल का कहना है कि कच्ची घाटी के इस क्षेत्र में जमींदोज भवन समेत सभी मकानों का निर्माण उनकी आंखों के सामने हुआ है. इस भवन के निर्माण के समय घोर अनदेखी हुई, मिट्टी तक का परीक्षण नहीं किया गया. इमारत की नींव समेत तमाम नियम-कायदों की अनदेखी की गई. सीमेंट और सरिया तक लगाने में कंजूसी की गई. बहरहाल, यहां जो हादसा हुआ है वो एक खतरे की ओर इशारा कर रहा है. अंग्रेजों ने शिमला शहर को 25 हजार लोगों के लिए बसाया था, लेकिन अब पहाड़ों की रानी की आबादी 2 लाख से ज्यादा है और 33 हजार से ज्यादा मकान हैं.
अमेरिकी एंजेसी ने किया था सर्वे
नगर-निगम शिमला के पूर्व मेयर संजय चौहान के समय अमेरिका की एक एजेंसी ‘तारू’ ने यहां संभावित खतरे को लेकर एक आंकलन करवाया था, जिसे हेजरड रिस्क वरनेविलिटी असेस्मेट नाम दिया गया था. इस असेस्मेंट के अनुसार शहर के 80 फीसदी भवन रिस्क जोन में हैं, 80 फीसदी में सबसे ज्यादा नए भवन शामिल हैं. सबसे ज्यादा खतरा संजौली और समिट्री इलाके में है. इसके अलावा पुराने शिमला की बात करें तो इसमें लोअर बाजार, मिडिल बाजार, बालूगंज, जाखू और छोटा शिमला जैसे क्षेत्र हैं जहां पर अंग्रेजों के जमाने से लेकर आजादी के बाद बने कई ऐसे मकान हैं, जो खतरा बने हुए हैं. इसके अलावा कई भवन जर्जर हालात में हैं, जो कभी ढह सकते हैं. रूलदु भट्टा, कृष्णानगर और स्नोडन क्षेत्र सिंकिंग जोन है लेकिन यहां भी धड़ल्ले से निर्माण हुआ है.